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________________ [21] इस वसुन्धरा पर स्थिर रहती तो संभव है कि निह्नव मत की तरह यह जड़पूजा मत भी सदा के लिए नष्ट हो जाता, किन्तु काल की विचित्र गति से यह महान् युगसृष्टा वृद्धावस्था के प्रातःकाल ही में स्वर्गवासी बन गये, जिससे पाखंड की दृढ़ भित्ति बिलकुल धराशायी नहीं हो सकी। श्रीमान् के ज्ञानबल और आत्मबल की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है, इसी आत्मबल का प्रभाव है कि एक ही उपदेश से मूर्तिपूजकों के तीर्थयात्रा के लिए निकले हुए विशाल संघ भी एकदम जड़ पूजा को छोड़ कर सच्चे धर्मभक्त बन गये। क्या यह श्रीमान् के आत्मबल का ज्वलन्त प्रमाण नहीं है? यद्यपि स्वार्थ प्रिय जड़ोपासक महानुभावों ने इस नर नाहर की, सभ्यता छोड़कर भर पेट निंदा की है, किन्तु निष्पक्ष सुज्ञ जनता के हृदय में इस महापुरुष के प्रति पूर्ण आदर है । इतिहासज्ञ इस अलौकिक पुरुष को सुधारक मानते हैं । यही क्यों? हमारे मूर्तिपूजक बन्धुओं की प्रसिद्ध और जवाबदार संस्था 'जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर' ने प्रोफेसर हेलमुटग्लाजेनाप के जर्मन ग्रन्थ 'जैनिज्म' का भाषान्तर प्रकाशित किया है उसमें भी श्रीमान् को सुधारक माना है और सारे संघ को अपना अनुयायी बनाने की ऐतिहासिक सत्य घटना को भी स्वीकार किया है, देखिये वहाँ का अवतरण " " शत्रुंजयनी जात्रा करीने एक संघ अमदाबाद थईने जतो हतो तेने एणे पोताना मतनो करी नाख्यो ।” (जैन धर्म पृ० ७२) ऐसे महान् आत्मबली वीर की द्वेष वश व्यर्थ निन्दा करने सचमुच दया के ही पात्र हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only वाले www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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