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________________ ___ मुखवस्त्रिका सिद्धि ************** ************************ षष्टमाङ्ग श्री ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र' के १४ वें अध्ययन में लिखा है कि तेतली प्रधान की स्त्री अपने पति को अप्रिय हो गई, समयान्तर में कुछ क्रोध शान्त हो जाने पर पति की आज्ञा से, दान देते हुए समय बिताने लगी। उस समय तेतलीपुर में आये हुए सुव्रताजी साध्वीजी का एक सिंघाडा नगर में भिक्षा के लिये निकला और अनेक घरों में घूमते हुए तेतली प्रधान के घर में प्रवेश किया। तेतली प्रधान की उस अप्रिय पत्नी पोट्टिला ने उन साध्वीजी को आदर सहित अशनादि प्रतिलाभ कर, उनसे पूछने लगी कि आप अनेक घरों में भ्रमण करती हैं, कहीं ऐसी जड़ी बूंटी या मन्त्रादि उपाय देखा हो तो बताइये कि जिसके प्रयोग से मैं पुनः अपने पति की प्रिय बन जाऊँ। इस पर उन महासितयों ने अपने दोनों कानों में दोनों हाथों की अंगुलिये लगा कर कहा कि अहो देवानुप्रिय! हमें इस प्रकार के शब्द कानों से भी सुनना नहीं कल्पता है फिर ऐसा मार्ग दिखाना तो रहा ही कहाँ? उक्त कथन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि जब उन साध्वीजी ने दोनों हाथों की अंगुलिये दोनों कानों में डाल कर (कान बंद कर) जो शब्द कहे हैं, उस समय उनके मुँह पर मुखवस्त्रिका अवश्य बंधी हुई थी ऐसा सिद्ध होता है, क्योंकि हाथ तो दोनों उनके कान के लगे हुए थे और खुले मुँह बोलना तो मूर्तिपूजक लोग भी स्वीकार नहीं करते, फिर बिना बाँधे ऐसा हो ही कैसे सकता है? फिर देखिये - निरयालिका सूत्र में सोमिल तापस का अधिकार है, वह जैन धर्म से निकल कर तापस हुआ था उसने भी काष्ट की मुखवस्त्रिका मुंह पर बाँधी थी। इससे भी यही सिद्ध होता है कि उस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003678
Book TitleMukhvastrika Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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