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________________ शंका-समाधान ************************************** और दूसरा जैन साधु का लिंग भी हमारा कायम रहे। जिसके अवलोकन करने से भव्य जीवों के हृदय में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा एवं अहिंसा के प्रति प्रेम उत्पन्न हो। इस तरह संसार का भी कुछ उपकार हो। पूर्व इतिहास भी कहता है कि साधु को देख लेने से ही कइयों को वैराग्य प्राप्त हुआ और उन्होंने क्रमशः अपना आत्मकल्याण भी कर लिया। यह बिना मुखवस्त्रिका के कैसे हो सकता है? नग्न सिर व हाथ में दण्ड झोली आदि तो अन्य सम्प्रदाय के साधु लोग भी रखते हैं। पर मुख्यतः एक मुखवस्त्रिका ही जो मुँह पर बँधी रहती है, ऐसी है कि जिससे दूर से जैन साधुत्त्व का परिचय मिल सके। __अतएव भगवती सूत्र का नाम लेकर मुखवस्त्रिका हाथ में रखना नितान्त अनुचित है। शंका - श्री ज्ञानसुन्दरजी ने एक प्रमाण फिर आचारांग का दिया है उसमें यह बताया है कि "वस्त्र रहित रहने वाला साधु ऐसा विचार करे कि मैं तृण, शीतोष्ण, दंस, मशग, आदि परीषह तो सहन कर लूंगा पर गुह्य प्रदेश (पुरुष चिन्ह) की लज्जा रूप परीषह को सहन करने में असमर्थ हूँ, ऐसे साधु को एक कटिबंध रखना कल्पता है" इस प्रमाण पर से सुन्दरजी ने यह तर्क की है कि - सूत्र में तो केवल एक कटिबन्ध रखना कहा है, तब आप के मुँहपत्ति का डोरा कहाँ रहा? इसका क्या समाधान है? समाधान - ऐसी मिथ्या तर्के ही अपने कर्ता का पक्ष व्यामोह सिद्ध करती हैं। देखिये - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003678
Book TitleMukhvastrika Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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