SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ चित्त-समाधि : जैन योग ६. देह, रस और सुख का प्रतिबंध नहीं रहता। १०. कषाय का निग्रह होता है । ११. विषय-भोगों के प्रति अनादर (उदासीन भाव) उत्पन्न होता है । १२. समाधि-मरण का स्थिर अभ्यास होता है। १३. प्रात्म-दमन होता है। माहार प्रादि का अनुराग क्षीण होता है । १४. आहार-निराशता-पाहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है। १५. अगृद्धि बढ़ती है। १६. लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है। १७. ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। १८. निद्रा-विजय होती है। १६. ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है। २०. विमुक्ति (विशिष्ट त्याग) का विकास होता है । २१. दर्प का नाश होता है। २२. स्वाध्याय-योग की निविघ्नता प्राप्त होती है । २३. सुख-दु:ख में सम रहने की स्थिति बनती है। २४. प्रात्मा, कुल, गण, शासन-सबकी प्रभावना होती है । २५. पालस्य त्यक्त होता है। २६. कर्म-मल का विशोधन होता है। २७. दूसरों का संवेग उत्पन्न होता है । २८. मिथ्या-दृष्टियों में भी सौम्यभाव उत्पन्न होता है । २६. मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है । ३०. तीर्थङ्कर की प्राज्ञा की आराधना होती है। ३१. देह-लाघव प्राप्त होता है । ३२. शरीर-स्नेह का शोषण होता है। ३३. राग आदि का उपशम होता है । ३४. पाहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है । ३५. संतोष बढ़ता है। बाह्य-तप के प्रयोजन (१) अनशन के प्रयोजन : (क) संयम-प्राप्ति, (ख) राग-नाश, (ग) कर्म-मलविशोधन, (घ) सद्ध्यान की प्राप्ति और (ङ) शास्त्राभ्यास । (२) अवमौदर्य के प्रयोजन : (क) संयम में सावधानी बरतना, (ख) वात, पित्त, श्लेष्म आदि दोषों का उपशमन और (ग) ज्ञान, ध्यान आदि की सिद्धि । (३) वृत्ति-संक्षेप के प्रयोजन : (क) भोजन-सम्बन्धी प्राशा पर अंकुश और (ख) भोजन-सम्बन्धी संकल्प-विकल्प और चिन्ता का नियंत्रण । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy