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________________ ठाणं है अंकन सम्यक् नहीं कर पाता। ये सभी स्थितियां उसके विकास में बाधक बनती हैं। अपने अहं के कारण वह दूसरों को तुच्छ समझने लगता है। १. अवस्था या दीक्षा-पर्याय के अहं से उसमें विनम्रता का अभाव हो जाता है। २. परिवार के अहं से वह दूसरों को हीन समझने लगता है । ३. श्रुत के अहं से उसमें जिज्ञासा का अभाव हो जाता है । ४. तप के अहं से उसमें क्रोध की मात्रा बढ़ती है। ५. लाभ के अहं से उसमें ममकार बढ़ता है । ६. पूजा-सत्कार के प्रहं से उसमें लौकषणा बढ़ती है। ५३. शस्त्र--वध या हिंसा के साधन को शस्त्र कहा जाता है। वह दो प्रकार का होता है---द्रव्य-शस्त्र और भाव-शस्त्र । प्रस्तुत सूत्र में दोनों प्रकार के शस्त्रों का संकलन है । इनमें प्रथम छह द्रव्य-शस्त्र हैं, शेष चार भाव-शस्त्र हैं—प्रांतरिक शस्त्र हैं। ५४. प्रस्तुत आलापक (सूत्र ४/२४६ से २५० तक) में कथा का विशद वर्णन किया गया है। आक्षेपिणी आदि कथा-चतुष्टय की व्याख्या दशकालिक-निर्यक्ति, मूलाराधना, दशवकालिक की व्याख्यानों, स्थानांगवृत्ति, धवला आदि अनेक ग्रंथों में मिलती है। दशवकालिक-नियुक्ति और मूलाराधना में इस कथा-चतुष्टय की व्याख्या समान है । स्थानांग वृत्तिकार ने आक्षेपणी की व्याख्या दशवकालिक-नियुक्ति के आधार पर की है। यह वृत्ति में उद्धत नियुक्ति गाथा से स्पष्ट होता है। धवला में इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से मिलती है। उसके अनुसार नाना प्रकार की एकांत दृष्टियों और दूसरे समयों की निराकरणपूर्वक शुद्धिकर छह द्रव्यों और नव पदार्थों का प्ररूपण करने वाली कथा को आक्षेपणी कहा जाता है। इसमें केवल तत्त्ववाद की स्थापना प्रधान है। __ प्रस्तुत आलापक में प्राक्षेपणी के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनसे दशवकालिकनियुक्ति और मूलाराधना की व्याख्या ही पुष्ट होती है। विक्षेपणी की व्याख्या में कोई भिन्नता नहीं है । स्थानांग वृत्ति कार ने संवेजनी (संवेदनी) की जो व्याख्या की है, वह दशवकालिक-नियुक्ति प्रादि ग्रन्थों की व्याख्या से भिन्न है। उनके अनुसार इसमें वैक्रिय-शुद्धि तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्धि का कथन होता है। धवला के अनुसार इसमें पुण्यफल का कथन होता है । यह उक्त अर्थ से भिन्न नहीं है। निवेदनी की व्याख्या में कोई भिन्नता लक्षित नहीं होती। धवलाकार के अनुसार इसमें पाप का कथन होता है। प्रस्तुत आलापक में निवेदनी कथा के आठ विकल्प किए गए हैं। उनसे यह फलित होता है कि पुण्य और पाप-दोनों के फलों का कथन करना इस कथा का विषय है । इससे स्थानांग वृत्ति कार कृत संवे जनी की व्याख्या की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003671
Book TitleChitta Samadhi Jain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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