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________________ १६४ हे प्रभो ! तेरापंथ समुदाय में व्याप्त शिथिलाचार, अव्यवस्था और सिद्धान्त विपर्ययता के विरुद्ध विद्रोह के स्वर में बोले, जिसका सहज परिणाम हुआ कि युगों की तहों में छिपी आचारविचार की विकृतियां स्वयं अनावृत हो गई एवं अनाचार की धुरी टूट गई । धन से धर्म को संबंधित कर एवं अपना-अपना घर बांधकर बैठने वाले मुख-सुविधा भोगी पदलोलुप' साधुओं की लोकेषणा, महत्त्वाकांक्षाएं व शिष्यों की चाह पर उन्होंने अत्यन्त कड़े शब्दों में प्रहार किए और उनकी अन्तरभेदी वाणी से शिथिलाचार के गढ़ ढहने लगे और युग को नया बोध मिला। आचार्य भिक्षु ने वीतराग प्रभु में अपनी अविचल आस्था रखते हुए वीतराग वाणी से गुम्फित जैन आगमों का अनेक बार सूक्ष्मता से तलस्पर्शी अध्ययन किया और उसके आधार पर अपनी भाषा में शाश्वत सत्य की मौलिक मान्यताएं एवं मर्यादाएं प्रस्तुत की, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है संसार में सब कार्य दो प्रकार के हैं-एक अधार्मिक और दूसरा धार्मिक । धार्मिक कार्य वे हैं जो सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चरित्र एवं तप की वृद्धि करते हैं तथा 'जिनसे आत्मा कर्म बंधन से मुक्ति प्राप्त करती है, इसके विपरित जो कार्य सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप की प्रक्रिया का ह्रास करते हैं, वे सभी कार्य अधार्मिक हैं । वीतराग प्रभु ऐसे कार्य करने, करवाने या अनुमोदन करने की प्रेरणा या आज्ञा नहीं देते । आचार्यश्री भिक्ष के शब्दों में १. अर्थ, परम अर्थ जिन धर्म छ:, उवाई सूयगड़ा अंग माय रे, तिण मोहे तो श्री जिन आगन्या, सेस अनर्थ में आग्या न कोयरे। ग्यान, दर्शन, चारित ने तप, एतो मोखरा मार्ग च्यार रे, यां च्यारों में जिणजी री आगन्या यां बिना नहीं धर्मलिगार रे । -जिन आज्ञा री चौपी १३१६-२ २. वीतराग प्रभ ने साधना के दो मार्ग बताए हैं, जिन्हें आगार धर्म और अनागार धर्म कहा जा सकता है । अनागार धर्म में पांच महाव्रत यथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह की अखंड एवं समग्र साधना करनी पड़ती है, उसमें कोई अपवाद नहीं होता। ऐसी साधना तीन करण, तीन योग से यानि मन, वाणी, शरीर से करना, करवाना, अनुमोदन करने में सर्वांश रूप से समाहित होती है और इन महाव्रतों के सिवाय इस साधना में सारे कार्यों का निषेध किया गया है, जो भी तीन करण, तीन योगों की प्रवृत्ति में ही फलित होता है। ऐसे धर्म की साधना केवल साधु, मुनि या संन्यासी ही कर सकते हैं और यह उनके लिए अनिवार्य है। आगार धर्म में इन पांच महाव्रतों की साधना आंशिक रूप से, अपनी सीमा में रहते, जीविकोपार्जन के सारे कार्य पवित्रता पूर्वक करता हुआ, गृहस्थ अपनी साधना, अपवाद रखकर करता है। सर्वांश और आंशिक साधना दोनों ही वीतराग प्रभो की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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