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________________ ३ संवारि करि शुद्ध करियो, यह मेरी प्रार्थना है ।' "" श्री पं० जयचन्द जी छाबड़ा अष्टपाहुड़ की भाषा टीका करते. हुए लिखते हैं -- "या में किछु बुद्धि की मंदतातें तथा प्रमाद के वशतें अर्थ श्रन्यथा लिखु तो बड़े बुद्धिमान मूल ग्रन्थ देखि शुद्ध करि वांचियो, मोकू अल्पबुद्धि जानि क्षमा कीजियो ।” "यहाँ इतना विशेष जानना जो काल-दोष हैं इस पंचम काल में अनेक पक्षपातकरि मतान्तर भये हैं तिनिकू भी मिथ्या जानि तिनका प्रसंग न करना, सर्वथा एकान्त का पक्षपात छोड़ि अनेकान्त रूप जिन वचन की शरण लेना ।" श्री पं० दौलतराम जी अपने सुन्दर पद्यग्रन्थ छहढाला के अन्त में कहते हैं लघुधी तथा प्रमाद तें, शब्द अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भवकूल ॥ अर्थ -- प्रल्पबुद्धि के कारण तथा प्रमादवश यदि ( इस छहढाला ग्रन्थ के बनाने में ) कहीं पर शब्द या अर्थ की भूल हो गई हो तो संसार से पार होने के लिये बुद्धिमान पुरुष मेरी भूल को सुधार कर इस ग्रन्थ को पढ़ने की कृपा करें । इसी प्रकार अन्य ग्रन्थकारों ने भी सावधानी से महान ग्रन्थों की रचना करने के बाद अपनी लघुता प्रगट करके अपना सौजन्य दिखलाया है । परन्तु आज उस आदर्श पद्धति का अनुकरण नहीं रहा । आजकल के टीकाकार प्राचीन निर्दोष ग्रन्थों की हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं में टीका करते समय अपने पक्ष से ऐसा प्रयुक्त अनुचित गलत मैटर मिला देते हैं जिसका मूल श्लोक, पद्य या ग्रन्थ से मेल नहीं बैठता । ग्रन्थ या श्लोक का भाव विकृत हो जाता है और साधारण समझ वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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