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________________ इतो लोभः क्षोभं जनयति दुरन्तो दव इवोल्लसंल्लाभाम्भोभिः कथमपि न शक्यः शमयितुम् । इतस्तृष्णाऽक्षाणां तुदति मृगतृष्णेव विफला, कथं स्वस्थैः स्थेयं विविधभयभीमे भववने ? ॥७॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस' ग्रंथ में तीसरी संसारभावना का प्रारंभ करते हुए कहते हैं : “यह एक भयानक भव-वन है । घना - बीहड़ जंगल है । इस वन में लोभ का दावानल भड़क रहा है । उसे बुझाना शक्य नहीं है । लाभ-प्राप्ति की लकड़ियों से यह लोभ का दावानल और ज्यादा धधक रहा है । इधर मृगतृष्णा-सी विषयलालसा, जीवों को घोर पीड़ा दे रही है । ऐसे भीषण भव-वन में निश्चित होकर, आराम से कैसे रहा जा सकता है ?" भीषण है संसार : संसार को घने – बीहड़ जंगल की उपमा दी है ग्रंथकार ने । संसार की चार गतियाँ हैं : देवगति, मनुष्यगति, तियँचगति और नरकगति । चारों गतियों में दुःख है, अशान्ति है, क्लेश और संताप है । इसलिए संसार को भीषण-रौद्र जंगल की उपमा दी है और इस संसार में से शीघ्रातिशीघ्र बाहर निकल जाने की तीर्थंकरों ने प्रेरणा दी है । मुक्ति-मोक्ष पाने का उपदेश दिया है । परंतु संसार की दो गतियों में सुख के आभास दिखते हैं । देवगति और मनुष्यगति में जीवों को वैषयिक सुख, सुखरूप दिखते हैं ! जैसे रेत के प्रदेश में मृग को दूर से पानी का आभास होता है वैसे ! पानी नहीं होता है, फिर भी पानी दिखाई देता है मृग को, और वह पानी पीने के लिए दौड़ता रहता है । वैसे स्वर्ग और मनुष्यलोक में सुखाभासों को सुख समझकर जीव उन वैषयिक सुखों के लिए दौड़ते रहते हैं। __यही है सुखतृष्णा का दावानल ! सुख-लोभ का दावानल ! समग्र संसार में यह दावानल जल रहा है, भड़क रहा है । जैसे जैसे जीव को भ्रमणा के सुखों की प्राप्ति होती जाती है, दावानल में लकड़ियाँ (वैषयिक सुखप्राप्ति की) गिरती जाती हैं, वैसे दावानल की ज्वालाएँ जलती रहती हैं, बुझती नहीं हैं । ऐसे संसार में जीवात्मा को स्वस्थता, शान्ति, प्रसन्नता कैसे रह सकती है ? दावानल में फँसे हुए जीवों की अशान्ति, संताप और पीड़ा देखनी हो तो किसी जलते हुए घर में फँसे हुए लोगों को देखना ! शान्त सुधारस : भाग १ १८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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