SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३. राग-द्वेष त्यागे बिनुं, परमातमपद नाही, कोटि कोटि तप-जप करे, सब अकारथ जाई । १४. देहसहित परमातमा, एह अचरिज की बात, राग-द्वेष के त्याग से कर्मशक्ति जरी जात । १५. राग-द्वेष कुं त्याग के, धरी परमातम ध्यान, युं पावे सुख शासवत भाई, इम कल्यान । ('परमात्म- छत्रीशी' में से) उपसंहार : — आज दूसरी अशरणभावना का विवेचन पूर्ण करता हूँ । जीवात्मा की हर जीवन में, हर गति में कैसी अशरण स्थिति है, यह बताकर, शरणभूत चार परमतत्त्व ही हैं. यह बात बतायी गई है । इस संसार में अशरण हूँ, मेरा कोई शरण नहीं हैं - ऐसा नहीं सोचना है। इस संसार में सच्ची शरण देनेवाले अरिहंत आदि चार परमतत्त्व हैं, इनके अलावा कोई शरण नहीं है । इस प्रकार सोचना है । 'श्री जिनधर्मः शरणम्' यह बार-बार 'अरिहंते सरणं पवज्जामि...' इत्यादि चार शरण बार-बार स्वीकार करने हैं । जब चित्त में शान्ति हो, तब दिन में सुबह, दोपहर और शाम, तीन समय शरणागति स्वीकारें । जब चित्त अशान्त हो, तब बार-बार शरणागति का स्वीकार करते रहें । शान्ति - समता - प्रसन्नता प्राप्त होगी । १८२ Jain Education International रटना है For Private & Personal Use Only 1 शान्त सुधारस : भाग १ www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy