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________________ शरणमेकमनुसर चतुरंगं परिहर ममतासंगम् । विनय ! रचय शिवसौख्यनिधानं, शान्तसुधारसपानम् ॥८॥ विनय ! विधीयतां रे श्रीजिनधर्मःशरणम् । अनुसंधीयतां रे, शुचितरचरणस्मरणम् ॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस की दूसरी अशरणभावना का समापन करते हुए कहते हैं : हे आत्मन्, तू चार शरण स्वीकार कर ले : अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलिप्रणीत धर्म की शरण ले ले । ममता का संग छोड़ दे और शिवसुख के निधानस्वरूप शान्तसुधा का आस्वादन कर । तीव्र रोगों से, अनिवार्य वृद्धावस्था से और निश्चित मृत्यु से, इस दुनिया में बचानेवाला कोई नहीं है । नियति का स्वीकार करते हुए जीवात्मा को जीवन का ममत्व छोड़ देना चाहिए । जीवन के मोह से मुक्त होना चाहिए । दुःखों का मूल : ममत्व : जैसे जीवन में अशरणता है, वैसे जीवन ही अशरण है । मनुष्य अपने जीवन में कई बार अशरणता का अनुभव करता है । जहाँ जहाँ उसके बल, बुद्धि, शक्ति, संपत्ति...वगैरह शरणभूत नहीं बनते हैं, स्वजन-परिजन भी शरणभूत नहीं बनते हैं, वहाँ मनुष्य घोर दुःख का अनुभव करता है । मनुष्य को अपना जीवन प्रिय होता है, और जब वह जीवन को खतरे में देखता है, तब दुःखी हो जाता है । जब बचने का कोई मार्ग नहीं दिखता है तब वह मर जाने का, आत्महत्या कर देने का सोचता है । चित्र-संभूत दो भाई का जीवन इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण है। सर्वप्रथम, जब नगरवासी लोगों ने 'ये तो चांडाल है, ऐसा तिरस्कार कर मारा था, तब वे अपने आपको अशरण समझ कर मर जाने के लिए जंगल में चले गये थे । भाग्ययोग से उस पहाड़ पर उनको महामुनि मिल गये...और उन्होंने आश्वासन दिया। चांडालकुल को ध्यान में नहीं लेते हुए मुनिराज ने उन दोनों भाइयों को वात्सल्य से, करुणा से शरण दी और साधुपना दिया। दोनों भाइयों को नया जीवन मिला। पुनः हस्तिनापुर नगर में संभूतमुनि को, नमुचिमंत्री ने त्रास दिया । सैनिकों के सामने वे अशरण हो गये और जीवन का ममत्व ही टूट गया। दोनों भाईमुनियों ने अनशन स्वीकार कर लिया ! स्वैच्छिक मृत्यु का वरण कर लिया । अशरण भावना १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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