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________________ ६६६ दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. लें न पहोतो. परमार्थयकी प्रधान पौंमरीक कमल समान चक्रवर्त्यादिक पुरुष जाणवा । तेनी प्राप्ति केवलज्ञानीने होय, अथवा न होय किंतु केवलज्ञान विना पण चारित्रिन कहे वाय तेकारणे पत्ते अपत्ते एवं स्यावाद पद कडं (एवंसेनिरकपरिमायकम्मेपरिमायसंगे के०) एरीतें ते साधुयें परिझायें करी जाण्यु अने प्रत्याख्यान परिझायें करी पच्यरव्यु ले एवा कर्मबंधना कारणने तथा बाह्यान्यंतर संगने जेणे वली (परिमायगेहवासेके०) परिझात गृहवास जेणे असार करी जाण्यो तथा (नवसंते के०) इंडिय अने नोइंख्यि जेणे उप शमाव्यां (समिएके) पांच समितिए समित (सहिएके) ज्ञान, दर्शन अने चारित्रे करी सहित (सयाजएके०) सर्वकाल संयत यत्नवंत (सेवंवयणिकंके) एवो ते चारित्रि सर्व गुणेयुक्त होय ते केवो होय ? (तंजहा के) ते कहे. (समऐतिवा के०) श्रमण तप ५ स्वी सममन एटले शत्रु मित्र उपर समनाव होय ते श्रमण जावो. (माहणेतिवाके) कोपण प्राणीमात्रने महणो एवो जेनो उपदेश होय तेने माहण ब्राह्मण कहिए ( खते तिवा के ) दमावंत (दंतेतिवाके ) दांत एटले इंडियोनो दमनार (गुत्तेतिवा के०) त्रणगुप्ते गुप्तो (मुत्तेतिवा के० ) मुक्ति एटले निर्लोनी ( इसीतिवा के० ) ऋषी विशिष्ट तपश्चर्या सहित जीवनो रक्षा करनार (मुणीतिवा के०) जगत्नी त्रिकालावस्थाना स्व रूपनो छाता (कतीतिवा के ) परमार्थ थकी पंमित जेनुं सर्व को कीर्तन करे तेजा वो (विमतिवा के० ) रूडी विद्यासहित विद्वान् सविद्योपेत तथा (निस्कूतिवा के) निरवद्याहारनो लेनार (लूहेतिवा के ) खुद अंतप्रांत थाहारी (तीरहीति वा के ) तथा संसारनो तीररूपजे मोद तेनो अर्थी (चरणकरणपारविन के० ) च रण एटले मूलगुण, अने करण एटले उत्तरगुण, तेनो पारपर्यंत गमन जाणे एटले च रण करनो पारंगामि जाणवो तेमाटे चरणकरण पारविन एम कह्यु. (इतिबेमि के )। श्रीसुधर्मस्वामी श्रीजंबूस्वामि प्रत्ये कहेले के ए वचन ढुं श्रीतीर्थकरना वचनने अनुसा रे कढुं. एरीतें श्री सूर्यगडांगसूत्रना बीजा श्रुतस्कंधने विषे प्रथम पौंमरीकनामा अध्य यननो बालावबोध समाप्त थयो ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-एवं पूर्वोक्तगुणः सनिर्धर्मार्थी धर्मवित् नियागः संयमोमोझोवा तं प्रतिपन्नः सचैवंनूतः पंचमपुरुषस्तं वाऽश्रित्य तद्यथेदं प्रारदर्शितं तत्सर्वमुक्तं । सच प्राप्तो वा स्यात्पद्मवरपुंडरीकं राजादिपुरुष । तत्प्राप्तिश्च तत्त्वतः केवलझानावाप्तौसत्यां स्यात् अप्राप्तौवा स्यात् मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा युतः सचैवंनूतोनिनुः परिझातकर्मविपाकः परिझातसंगस्त्यक्तसंबंधः परिझातोनिःसारतया गृहवासोयेन सतथा उपशांतोदांतेंड्यिः समितः समितिनिः सह हितेन वर्ततेयः ससहितः सदायतः संयतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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