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________________ ( ख ) किया | वह टिप्पणी यथास्थान इस पुस्तक में प्रकाशित कर दी गई है। इधर अनेक सज्जनों ने मुझसे मेरे उद्देश्य को बतलाने के लिये विशेष आग्रह किया तब मैने जनवरी सन् १९४२ के लेख में मेरे उद्देश्य को प्रकाशित करते हुए बतलाया कि जैन शास्त्र ही एक ऐसे शास्त्र हैं जिनसे कोई कोई यह भाव भी प्रमाणित करते हैं कि भूख प्यास से मरते हुवे को अन्नपानी की सहायता से बचाना, गरीब दुःखी, विपत्तिग्रस्त को सहायता - करना अस्वस्थ माता पिता, पति आदि की सेवा सुश्रुषा करना, रोगियों की चिकित्सा के लिये चिकित्सालय खोलना, शिक्षा प्रचार के लिये शिक्षालयों का प्रबन्ध करना आदि संसार के ऐसे सब प्रकार के परोपकारी कामों को एक सद्गृहस्थ द्वारा निस्वार्थ भाव से किये जानेपर भी उस गृहस्थ को एकान्त पाप होता है । इन भावों के प्रचार का असर आज जैन कहलाने वाले हजारों व्यक्तियों के हृदय पर हो चुका है। शास्त्रों को सर्वज्ञ प्रणीत एवम् भगवान के बचन मानकर उनके बचनों को अक्षर अक्षर सत्य माना जा रहा है और उनके बिधि - निषेधों को आंख मूंदकर अमल में लाना कल्याणकारी समझा जाता है । मानव समाज परस्पर सहयोग के बिना चल नहीं सकता । जीवन में पग पगपर अन्यके सहयोग की आवश्यक्ता होती है । समाजकी रचना और व्यवस्था ही इस लिये हुई है कि परस्पर के सहयोग द्वारा नानातरह की सुख-सुविधाएँ प्राप्त करके सामुहिक एवम् व्यक्तिगत जीवन को अधिक से अधिक सुखी बनाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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