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________________ परिशिष्ट । पइ कि वि कय नीरोय लोय कि वि पावियसुहसय, कि विमइमंत महंत के वि कि वि साहियसिवपय । कि वि गंजियारिउवग्ग के वि जसधवलियभूयल, मइ अवहीरहि केण पास सरणागयवच्छल ।। २१ ॥ अन्वयार्थ-'पइ'तुम्हारे द्वारा किवि लोय नीरोय कयकितने ही प्राणी नीरोग किये गये, 'कि विपावियसुहसय कितनेकों को सैकड़ों सुख मिले, 'कि वि मइमंत' कितने ही बुद्धिमान् हुए 'के वि महंतः कितने ही बड़े हुए 'कि वि साहियसिवपय कितनेक सिद्ध-दशा को पहुँचे, 'कि वि गंजियरिउवग्गा कितनेकों के शत्रु-गण नष्ट हुए, 'के वि जसधवलियभूयल कितनेकों के यश से पृथ्वी स्वच्छ हुई, [पर] 'सरणागयवच्छल पास' हे शरण-आगत-वत्सल पार्श्व! 'मइ केण अवहीरहि' मेरी अवहेलना किस कारण से कर रहे हो ॥२१॥ भावार्थ हे पार्श्व! तुम से लोगों ने नीरोगता प्राप्त की, सैकड़ों सुख पाये, बुद्धिमत्ता और महत्ता प्राप्त की, मोक्ष-पद प्राप्त किया, अपने वैरियों को हराया और समस्त पृथ्वी पर अपना यश फैलाया; किंबहुना, तुम तो शरण में आये हुए जीवों को अपनाने वाले हो-उन की कुल आकाङ्क्षाओं को पूर्ण करने वाले हो तो फिर मेरी उपेक्षा किस वजह से की? ॥२१॥ + पत्या केऽपि कृता नीरोगा लोकाः केऽपि प्रापितसुखशताः, कऽपि मतिमन्तो महान्तः केऽपि केऽपि साधितशिवपदाः । केपि गजितरिपुवाः केऽपि यशोधवलितभूतलाः, मामधारयीस कने पाश्व शरणाऽऽगतवत्सल ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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