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________________ चैत्य-वन्दन - स्तवनादि ३५१ कथनी तो जगत मजूरी, रहेणी है बंदी हजूरी रे | कथनी साकर सम मीठी, रहेणी अति लागे अनीठी | क० |४| जब रहेणी का घर पावे, कथनी तब गिनती आवे रे | अब 'चिदानन्द' इम जोई, रहेणी की सेज रहे सोई । क०१५ | [ आरति । ] विविध रत्न- मणि जड़ित रच्चो, थाल विशाल अनुपम लावो । आरति उतारो प्रभुर्जानी आगे, भावना भावी शिवं सुख मागे || आ० ॥ १ ॥ सात चौद ने एक वीस भेवा, aण त्रण वार प्रदक्षिण देवा | आ० ||२|| जिम तिम जलधारा देई जंपे, जिम तिम दोहरा थर थर कंपे | आ० ॥३॥ बहु भव संचित पाप पणा, चौद सत्र पूजाथी भाव उल्लासे | आ० || ४ || भुवनमां जिनजी, कोई नहीं, आरति इम बोले । आ० ॥५॥ [ मंगल- दीपक । ] चारो मंगल चार, आज मारे चारो मंगल चार । देखा दरस सरस जिनजी का, शोभा सुंदर सार । आ० ॥ १ ॥ छिन् छिन् छिन् मन मोहन चरचो, घसी केसर घन सार | आ०२ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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