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________________ २८४ प्रतिक्रमण सूत्र । तं बहुगुणप्पसायं, मुक्खसुहेण परमेण अविसायं । Paresh विसायं कुण अ परिसा वि अ प्पसायं ॥ ३६ ॥ > ( गाहा ।) अन्वयार्थ - - ' बहुगुणप्पसायं' बहुत गुणों के प्रसाद से युक्त, 'परमेण' उत्कृष्ट 'मुक्खसुहेण' मोक्ष सुख के निमित्त से 'अविसायं ' खेदरहित [ ऐसा ] 'तं' वह अर्थात् श्री अजितनाथ और शान्तिनाथ का युगल 'मे' मेरे 'विसाय' खेद को 'नासेउ ' नष्ट करे, 'अ' तथा 'परिसा वि' सभा के ऊपर भी 'पसायं प्रसाद ' कुणउ' करे ||३६|| भावार्थ - - इस छन्द का और आगे के छन्द का नाम गाथा है, दोनों छन्दों में प्रार्थना है । जिन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनेक गुण परिपूर्ण विकसित हैं, जिन्हें सर्वोत्तम मोक्ष- सुख प्राप्त होने के कारण शोक नहीं है, वे श्री अजितनाथ तथा शान्तिनाथ दोनों मेरे विषाद को हरें और सभा के ऊपर भी अनुग्रह करें ||३६|| * तं मोएउ अ नंदि, पावेउ अ नंदिसेणमभिनंदि । परिसा वि अ सुहनंदि, मम य दिसउ संजमे नंदि ॥३७॥ ( गाहा ।) + तत् बहुगुणप्रसादं, मोक्षसुखेन परमेणाऽविषादम् । नाशयतु मे विषादं करोतु च पर्षदपि च प्रसादम् ॥ ३६ ॥ * तत् मोदयतु च नन्दि, प्रापयतु च नन्दिषणमभिनन्दिम् । पर्षदोऽपि च सुखनन्दि, मम च दिशतु संयमे नन्दिम् ॥३७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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