SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ प्रतिक्रमण सूत्र । इस प्रकार भरत क्षेत्र का जो महाप्रभावशाली सम्राट हुआ, उस स्वयं शान्ति वाले, दूसरों को शान्ति पहुँचाने वाले और सब भयों से मुक्त-सारांश यह कि पहले साधारण राजा, पीछे चक्रवर्ती और अन्त में महान् त्यागी, ऐसे श्रीशान्तिनाथ जिनवर की मैं स्तुति करता हूँ, वह श्रीशान्तिनाथ भगवान् मुझ को शान्ति देवे । * इक्खाग विदेहनरीसर नरवसहा मुणिवसहा, नवसारयससिसकलाणण विगयतमा विहुअरया। ___ अजि उत्तम तेअगुणेहिं महामुणिअमिअबला विउलकुला, पणमामि ते भवभयमूरण जगसरणा मम सरणं ॥१३॥ (चित्तलेहा।) अन्वयार्थ--'इक्खाग' इक्ष्वाकु वंश में जन्म लेने वाले, ""विदेहनरीसर' विदेह देश के नरपति, 'नरवसहा' नर-श्रेष्ठ, 'मुणिवसहा' मुनि-श्रेष्ठ, नवसारयससि सकलाणण' शरद् ऋतु के नवीन चन्द्र के समान कलापूर्ण मुख वाले, 'विगयतमा' अज्ञानरूप अन्धकार से रहित, 'विहुअरया' कर्मरूप रज से रहित, 'तेअगुणेहि' तेजरूप गुणों से 'उत्तम' श्रेष्ठ, ‘महामुणिअमि अबला' महामुनियों के द्वारा भी नापा न जा सके ऐसे बल ' बाले, 'विउलकुला विशाल कुल वाले, 'भवभयमूरण' सांसारिक * ऐक्ष्वाक ! विदेहनरेश्वर ! नरवृषभ ! मुनिवृषभ !, नवशारदशशिसकलानन ! विगततमः ! विधुतरजः!। . अजित ! उत्तम 1 तेजोगुणैर्महामुन्यमितबल ! विपुलकुल !, प्रणमामि तुभ्यं भवभयभजन ! जगच्छरण ! मम शरणम् ।।१३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy