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________________ वंदित्त सूत्र । ११३ भावार्थ------जो साधु ज्ञानादि गुण में रत हैं या जो वस्त्रपात्र आदि उपधि वाले हैं, वे सुखी कहलाते हैं । जो व्याधि से पीड़ित हैं, तपस्या से खिन्न हैं या वस्त्र-पात्र आदि उपधि से विहीन हैं, वे दुःखी कहे जाते हैं। जो गुरु की निश्रा से उनकी आज्ञा के अनुसार-वर्तते हैं, वे साधु अस्वयत कहलाते हैं। जो संयम-हीन हैं, वे असंयत कहे जाते हैं। ऐसे सुखी, दुःखी, अस्वयत और असंयत साधुओं पर यह व्यक्ति मेरा सम्बन्धी है, यह कुलीन है या यह प्रतिष्ठित है इत्यादि प्रकार के ममत्वभाव से अर्थात् राग-वश हो कर अनुकम्पा करना तथा यह कंगाल है, यह जाति-हीन है, यह घिनौना है, इस लिये इसे जो कुछ देना हो दे कर जल्दी निकाल दो, इत्यादि प्रकार के घृणाव्यञ्जक-भाव से अर्थात् द्वेष-वश हो कर अनुकम्पा करना । इसकी इस गाथा में आलोचना की गई है ॥३१॥ * साहूसु संविभागो, न कओ तवचरणकरणजुत्तेसु । संते फासुअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥३२॥ अन्वयार्थ----'दाणे' देने योग्य अन्न आदि 'फासुअ' प्रासुक-आचित्त 'संते' होने पर भी 'तव' तप और 'चरणकरण' चरण-करण से 'जुत्तेसु' युक्त 'साहूसु' साधुओं का 'संविभागो' आतिथ्य 'न कओ' न किया 'तं' उसकी 'निंदे' निंदा करता हूँ 'च' और 'गरिहामि' गर्दा करता हूँ॥ ३२॥ * साधुसु संविभागो, न कृतस्तपश्चरणकरणयुक्तेषु । ___सति प्रासुकदाने, तनिन्दामि तच्च गर्हे ॥३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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