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________________ सामाइयवयजुत्तो। भावार्थ--मैं सामायिकवत ग्रहण करता हूँ। राग-द्वेष का अभाव या ज्ञान-दर्शन-चारित्र का लाभ ही सामायिक है, इस लिये पाप वाले व्यापारों का मैं त्याग करता हूँ। __ जब तक मैं इस नियम का पालन करता रहूँ तब तक मन वचन और शरीर इन तीन साधनों से पाप-व्यापार को न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा ॥ हे खामिन् ! पूर्व-कृत पाप से मैं निवृत्त होता हूँ, अपने हृदय में उसे बुरा समझता हूँ और गुरु के सामने उसकी निन्दा करता हूँ। इस प्रकार मैं अपने आत्मा को पाप-क्रिया से छुड़ाता हूँ। १०-सामायिक पारने का सूत्र । * सामाइयवयजुत्तो, जाव मणे होई नियमसंजुत्तो । छिन्नइ असुहं कम्मं, सामाइय जत्तिआ वारा ॥१॥ अन्वयार्थ---[श्रावक ] 'जाव' जब तक 'सामाइयवयजुत्तो' सामायिकव्रत-सहित [तथा ] 'मणे मनके 'नियमसंजुत्तो' नियम-सहित 'होई' हो [और ] 'जत्तिया' जितनी 'वारा' बार 'सामाइय' सामायिकत्रत [ लेवे तब तक और उतनी बार] : ‘असुहं कम्मं अशुभ कर्म 'छिन्नई' काटता है ॥१॥ भावार्थ--मनको नियम में-कब्जे में रखकर जब तक और जितनी बार सामायिक व्रत लिया जाता है तब तक और * सामायिकव्रतयुक्तो यावन्मनसि भवति नियमसंयुक्तः । छिनत्ति AM रान॥ १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003649
Book TitlePanch Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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