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________________ द्वितीयखम. हणावे अन्यको हणतां नलो न जाणे. इस प्रकारसे सर्व जीवोमें जिसका मन प्रवर्ने सो समण कहा जाता है. “सर्वजीवेषु समत्वे, सममणतीति समणः” एक तो समग शब्दका यह पर्यायार्थ है. ऐसेही “ समं मनोऽस्येति समनाः” यह दुसरा पर्यायार्थ नाम है. इसका अन्वर्थ यह है. सर्व जीवोमेंसें नतो को वेष योग्य है और न को प्रिय है, सर्व जीवोंमे सम मन होनेसें. सम मन "समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना सममनाः" अथवा नरग-सर्प तिसके समान होवं. जैसें सर्प परके बनाये स्थानमें रहता है, तैसेंहि परके बनाये स्थानमें रहै. तथा पर्वत समान होवे, नपसर्गसें चलायमान न होवे. तथा अग्नि समान होवे, तप तेजमय होनेसें. तया समु समान होवे गुण रत्न करके परिपूर्ण तथा ज्ञानादि गुणा करके अगाध होनेसें. तथा आकाश समान होवे, निरालंबन होनसें. तथा वृदो समान होवे, सुख पुःखमें विकार न दर्शानेसें. तथा ब्रमर समान होवे, अनियत वृत्ति होनेसें. तथा मृग समान होवे, संसार प्रति नित्य नहिग्न होनेसें. तथा पृथ्वी समान होवे, सर्व सुख दुःख सहनें सें. तथा कमल समान होवे, पंक जल समान काम नोगांके नपरि वर्जे. तथा सूर्य समान होवे, अज्ञान अंधकारके दूर करनें सें. तथा पवन समान होवे, सर्वत्र अप्रतिबद होनेसें. इन पूर्वोक्त सर्व गुणांवाले पुरुषको श्रमण कहते है. और पूर्वोक्त सर्व गुणांकी धारणेवाली स्त्रीको श्रमणी कहते है. श्रावक उसको कहते है. जो श्रद्धापूर्वक जिन वचन सुसे, तथा श्रा-पाके नव तत्वके ज्ञानको पकावे-तब तत्वका जानकार होवे; 'टु वीजतंतुसंताने;' न्यायोपार्जित धन रूप बीज, जिनमंदिर, जिन प्रतिमा, पुस्तक, साधु, साध्वी, श्रावक श्राविकारूप सात क्षेत्रमें बोवें; 'कृविक्षपे, 'जो जप, तप, शील, संतोषादि करके अष्ट कर्मरूप का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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