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________________ तृतीय प्रकाश. ३१॥ सौगंधिक (१०) आसक्त ए दश नपुंसक संक्लिष्ट चित्तवाला होवाथी साधु ओने दीक्षा देवाने अयोग्य छे, ते सर्वनुं संक्लिष्टपणुं महानगरदाह समान कामना अध्यवसाय युक्तपणावडे स्त्री पुरुष सेवन आश्रीने होय छे. केमके ते उजय सेवी छे. तेमनुं स्वरुप निशीथ भाष्यथो तथा प्रवचनसारोघारथी जाणी से. अत्र प्रश्न थाय छे के पुरुषना नेदमां अने अत्र नपुंसक कहेला छे तेमां शुं विशेष छ ? उत्तरमां कहेवामां आवे छे के त्या प्रथम पुरुष आकृतिनुं ग्रहण डे अने अत्र नपुंसक आकृतिनुं ग्रहण -ए विशेषपणुं . तेमज स्त्रीने विषे पण समजवू. हवे सोळ जेदमां बाकी रहेला छ लेद दीक्षाने योग्य ते दावे . " वधिए चिप्पिएचेव मंतयो सहिउवहे। सिसते' देवसत्ते य पवावेज नपुंसए " ॥१॥ १ राजा अंतःपुरनी रक्षा माटे उत्तर कालमां बाल अवस्थामां बेद आपी जे पुरुषना चिह्नने गाळी नांखे छे ते वर्षक नपुंसक कहेवाय छे. ५ जन्म पामतांज अंगुठाथी अथवा आंगळीथी जेनुं पुरुष चिह्न खेरवी नखाय अथवा वीवरी नखाय ते चिप्पित नामे नपुंसक कहेवाय छे. ३-४ जेने मंत्रनी शक्तिथी अथवा औषधना प्रनावी पुरुष वेद अथवा स्त्री वेद हणतां नपुंसक वेद उदय थाय ते बे प्रकारे नपुंसक कहेवाय छे. ५ को ऋषि के तापसे शाप आपवाथी जे नपुंसक थयेलो ते ऋषिशप्त नपुंसक कहेवाय छे. ६ जे कोइ नुवनपति वगेरे देवताना शापथी नपुंसक थयेस्रो होय ते देवशप्त कहेवाय जे. आ छ प्रकारना नपुंसकोने दीक्षा आपी शकाय छे. ___हवे अढार, वीश अने दश नेदथी व्यतिरिक्त एवा पुरुष स्त्री अने नपुंसकने विषे जे सर्व विरति अंगीकार कराय छे, ते कहे - " अमंदवैराग्यनिमग्नबुझ्यः तनकृताशेषकषायवैरिणः । ऋजुस्वभावाः सुविनीतमानसा भजति भव्या मुनिधर्ममुत्तमम्"१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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