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________________ श् श्री आत्मप्रबोध. [२] जे स्थाने मलमूत्र परठवे, [३] जे स्थाने नागकुमार अथवा सुवर्णकुमार असुरोना वासमां वासो ले-रात्रि रहे [४] जे स्थाने यावज्जीव रहे. ए प्रकारे श्रावकने चार विश्राम (विशामा ) कडेला बे. कहां से के, -- " जत्थणं सिलव्वयगुणव्वय वेरमण पञ्चरका पोसहोववासाइ परिवज्जइ " ॥ १ ॥ "" “ जत्य विणं सामाइयं देसावगासियं वा परिवज्जइ ॥२॥ जत्थ वियणं चाउद सिद्दिपुलिम्मासीसु परिपुन्नं पोसढं सम्मं अणुपालेश् " ॥ ३ ॥ "" जत्थ वियणं पच्छिमं मारणंतियसंबेदणा झूला झूसिए जन्तपरिग्रइस्किए पाठ गए कालं प्रणवकख माणे विहरइ " ॥ ४॥ अर्थ - [१] ज्यां अणुव्रत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान ने पोषघोषवासादि अंगीकार करे, [२] जे स्थाने सामायिक करे अथवा देशावका शिकने आदरे, [३] जे स्थाने चतुर्दशी अष्टमी अमावास्या पूर्णिमाने दिवसे परिपूर्ण अ होरात्र पोषवत सम्यक् पाले, [४] जे स्थानमा मृत्यु समयनी संलेखना करarah कषायने पातळा करवाएं अंगीकार करे, असा करे अने पादोपगमन करीने जीवित मरणने अइच्छतो विचरे. श्रावना सद्भूत गुणोनुं वर्णन. " जिनप्रणीतार्थविदो यथार्थ - सद्वाग्युतोऽपास्तमतांतरस्थाः । स्वकीय धर्मोज्ज्वल मार्गमग्नाः श्रद्धालवः शुद्धधियो जयंतु " ॥ १ ॥ " जिनप्रणीत एवार्थने जाणनारा, यथार्थ सत्य वाणी बोलनारा, मतमतांतरने दूर करनारा पोताना धर्मना उज्वल मार्गमां मत्र रहेनारा, श्रद्धालु ने शुद्ध बुद्धिवाला श्रावको जय पामो. " १ विशेषार्थ - जे श्रावको श्री जिनेश्वरे प्ररूपेला यथास्थित जीवाजीवादि १. जेम कोइ भारवाही मनुष्य आ प्रकारे चार विसामा लीए तेम श्रावकने माटे नीचेना चार विसामा छे; अत्र दृष्टांत दाष्टतिक छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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