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________________ ३०४ श्री आत्मप्रबोध. परिग्रह सर्व क्लेशोनुं मूत्र , ते दर्शावे . "सेवंति पहुं लंघति सायरं सायरं भमंति नुवं । विविरं विसंति निविसंति पिनवणे परिग्गहे निरया" ॥१॥ "द्रव्यादि संचयने विषे एकाग्र चित्तवाला प्राणीओ धनना स्वामीनी सेवा करे , समुज्नुं उबंधन करे छे, आदर पूर्वक पृथ्वीमां लटके डे, सिद्धरस व'गरेने माटे पर्वतनी गुफामा प्रवेश करे के अने मंत्रादिकनी सिधिने माटे इमशानमा वसे छे. आवा प्रकारनो परिग्रह दुःखनो हेतुरुप छे." १ एवा परिग्रहने दुःखनो हेतु जाणी, तेनाथी संतोष राखवो सारो . संतोषी मनुष्यो निर्धन होय तोपण इंशादिकना सुखने अनुलवे . तेने माटे कयुं छे के, ___“ संतोसगुणेण अकिंचणोवि इंदाश्असुहं लह। इंदस्स वि रिहिं पाविजण कणो चिय अतुट्ठो” ॥१॥ " निर्धन पण संतोषना गुणवझे इंशादिकना सुखने अनुजवे ने अने असंतोषी पाणी इंधनी समृधिने पण पामीने ऊो रहे -अवप्त रहे ." १ असंतोषी मनुष्यने इंद्रना सुखो मले तोपण संनोष वळतो नथी, एटले त करतां पण वधारे सुखनी श्छा करे . उपर कहेला स्वरुपवाला परिग्रह प्रमाणनुं स्वरूप अने संतोषनुं मूल विवेक , ए वात दृष्टांतथी देखामे . "विवेकः सद्गुणश्रेणिहेतुर्निर्गदितो जिनैः। संतोषादिगुणः क्वापि, प्राप्यते नहि तं विना" ॥१॥ " विवेक सद्गुणोनी श्रेणिर्नु कारण ने, एम जिनेश्वरोए कहेलु जे. ते विवेकविना संतोषादि गुण बीजे कोइ स्थळे पण प्राप्त थतो नथी." १ विवेक प्रगट थवाथी सर्व सद्गुणो पोतानी मेळे आवी ते जव्य पुरुषना Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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