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________________ प्रथमप्रकाश १५ए ते आ प्रमाणे-मिथ्यात्व, अज्ञान, जीव हिंसादिक पुष्ट हेतुओनो समुदाय सर्व कर्मोना जालने उत्पन्न करवाने समर्थ डे अने तेना विरोधी रुप सम्यग् दर्शनादिकनो अज्यास सकल कोने निर्मूल करवा समर्थ डे, ते आ प्रमाणे मिथ्याष्टि के करेलो जे उपाय, ते मुक्तिनो साधक थशे, एम कहे तथा मिथ्यात्वीनो करेलो उपाय हिंसादिक दोषवमे पाप वालो होत्राथी संसार- कारणपणुं बे, आ उपरथो मोदना उपायना अनावने प्रतिपादन करनार कणादमतनो तिरस्कार करवामां आव्यो जे. एवी रीते जीवना अस्तित्व वगेरे उ स्थानको सम्यक्त्वना कहेला ले. जेना आत्माने विषे ए ड स्थानकनी प्रतीति , तेने सम्यक्त्व होय ने. अहिं प्रत्येक स्थानके आत्मादिकनी सिधिने माटे घाणुं कहेवानुं , पण ग्रंथनी गहनता था जवाना जयथी ते कहेवामां आव्यु नथी. एवी रोते समसठ भेदथी सम्यक्त्वने कह्यु छे. ए समसठ नेदयी युक्त एवा सम्यक्त्वने आराधवाथी जव्य आत्मा मोद मार्गनो अधिकारी बने जे. वतो अहिं जे नव्य प्राणीओ वस्तुमात्रना प्रमाणनी सिधिमां परस्पर सापेक्ष कालादिक पांचने कारणपणे प्रमाण करे , तेने तेवा प्रकारना सम्यक्त्व रत्ननुं स्वामिपएं प्राप्त थाय , बीजा एकांतवादीओने थतुं नथी. तेने माटे कमु डे के, " कालो सहाव नियइ पुव्वकयं पुरिसकारणे पंच । समवाए सम्मत्तं, एगंते होश मिच्छत्तं ॥ १ ॥ काल, स्वनाव, नियति, पूर्वकृतकर्म, अने पुरुषकार ( पुरुषार्थ ) ए पांच कारण माने तेन सम्यक्त्त्व होय . अने तेमां जे एकांत माने तेने मिथ्यात्व होय . १ श्त्यं स्वरूपं परमात्मरूप निरूपकं चित्रगुणं पवित्रम् । सम्यक्त्वरत्नं परिगृह्य नव्या नजंतु दिव्यं सुखमक्यं च॥ १ ॥ ___ आवी रीते पूर्वे कहेला स्वरूपवावें, परमात्माना रूपने प्ररूपण करनारं अने विचित्र रूपवाटुं सम्यक्त्व रत्न ग्रहण करीने हे जव्य पुरुषो, तमे दिव्य अने अश्य सुखने नजो.. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003647
Book TitleAtmprabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1912
Total Pages464
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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