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________________ भारतवर्ष श्रद्धा एवं शिल्प का खजाना है। श्रद्धा भारत की आत्मा रही है। श्रद्धा के अतिरेक का ही यह परिणाम है कि यहां ठौर-ठौर मन्दिर, विभिन्न आराधना-स्थल एवं स्मारक मिल जाते हैं। अनेक शिल्पांकित मन्दिर भूमिसात् हो जाने के बावजूद अतीत के आध्यात्मिक अवशेषों को देश ने सुरक्षित रखा है। मन्दिरों के निर्माण के प्रति तो यह देश आस्थावान रहा ही है, उनकी रक्षा के प्रति भी सजग-सक्रिय रहा है। उस राष्ट्र की श्रद्धा को कौन छ सकता है, जहां प्राणों को न्यौछावर करके भी मन्दिर-मूर्तियों की सुरक्षा की गई। भारतवर्ष में मुख्यत: हिन्दु, जैन, बौद्ध, सिख, इस्लाम और ईसाइयत ने विस्तार किया है । इस्लाम और ईसाइयत बाहर से आए हैं, जबकि हिन्दु, जैन, बौद्ध व सिखों की तो जन्म-स्थली ही भारत है। इन धर्मों के प्रवर्तकों, धर्माचार्यों और सन्तों ने अपने आध्यात्मिक श्रम एवं दिशा-निर्देशों से इस राष्ट्र के धरातल का सिंचन-वर्धन और संरक्षण किया है। राष्ट्र उनके प्रति कृतज्ञ तो है ही, उनके संदेश ही वास्तव में राष्ट्र के सिद्धान्त बने हुए हैं। भगवान महावीर की अहिंसा, बुद्ध का मध्यम मार्ग, राम की मर्यादा इस राष्ट्र की परम आधारशिला है। जैन धर्म का अभ्युदय भारत माता की गोद में हुआ है । इस देश के हर अंचल में इस धर्म की किलकारियां पहुंची हैं । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, असंग्रह और ब्रह्मचर्य के साथ सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र के नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर आधारित इस धर्म ने राष्ट्र को हर दृष्टि से बहुत कुछ दिया है। राष्ट्र इस दृष्टि से जैन धर्म को अवढ़र दानी की संज्ञा देगा। भारत के इतिहास में कोई पृष्ठ तो क्या एक पंक्ति भी ऐसी नहीं मिलेगी जिससे जैनत्व के द्वारा राष्ट की गरिमा को आघात पहुंचा हो । जैनत्व के संदेश वास्तव में भारत के ही संदेश जैनत्व की जन्म-स्थली होने के कारण भारत जैनों की पूज्य पावन पुण्य धरा है। यहां जैनों के समस्त तीर्थंकर एवं शलाका-पुरुष हुए। यहां जैन धर्म के तीर्थ और मन्दिर, शास्त्र और संगितियों का तो निर्माण और विनियोजन हुआ ही, जैन संतों ने यहां विचरण कर गांव-गांव में अहिंसा और शांति की अलख जगाई, वैराग्य और वीतरागता के निर्झर पहंचाये।। प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन तीर्थों के शिल्प को आकलित किया गया है। तीर्थ तो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003646
Book TitleVishva Prasiddha Jain Tirth Shraddha evam Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1996
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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