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________________ तमिलनाडु में जैनधर्म -महेन्द्रकुमार जैन (धाकड़ा) जैन धर्म विश्व धर्म है । यह अनादि एवं सभी धर्मों में उत्कृष्ट है। जैन धर्म को कई नामों से जाना जाता है, यथा- अर्हत् धर्म, अनेकान्त धर्म, स्याद्वाद धर्म आदि । जैन धर्म के आराध्यदेव को जिन कहते है। जिसका अर्थ है- जीतने वाला। जिसने विकारों पर विजय प्राप्त करली, वह जिन है । जीवात्मा और परमात्मा में इतना ही अन्तर होता है कि जीवात्मा अशुद्ध होता है, काम क्रोधादि विकारों के कारण कर्मों से घिरा रहता है, अतः स्वाभाविक गुण- अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख प्रकट नहीं हो पाते । जब वह उन कर्मों को क्षय कर देता है, तब वह परमात्मा बन जाता है। उन्हीं परम पूज्य परमात्माओं के जिन बिम्ब हमारे भव्य जिनालयों में स्थापित करते हैं उनके गुणों की पूजा करके अपने कर्मों का नाश करते है । आईये, अब तमिलनाडु में जैन धर्म एवं उसकी परिस्थिति पर विचार करेंगे। आज जितना तमिलनाडु प्रान्त है, यह प्राचीन काल में कई गुणा विस्तृत था । आज के विभक्त तमिलनाडु, कर्णाटक, केरल एवं आन्ध्र- ये सभी प्रदेश सम्मिलित होकर एक विशाल प्रांत की सीमा रेखाएं निर्धारित करते थे, जिसे द्रविड़ के नाम से जाना जाता था । द्रविड़ जैन धर्मावलम्बियों का प्रमुख केन्द्र था । जैन एवं जैनेतर सभी इतिहासकारों का यही मत है । यहाँ महान् आचार्य कुंदकुंद, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य अकलंक आदि विद्वद् शिरोमणियों का जन्म स्थान एवं प्रचार स्थल होने के कारण जैन धर्म जगमगाता रहा। ये सभी आचार्य ज्ञानसिन्धु एवं गरिमा के प्रतीक थे । तमिलनाडु जैन सिद्धान्त और जैनत्व के अति प्राचीनतम भग्नावेश का स्थानभूत प्राचीन देश है । यह प्रदेश जिनबिम्ब, जिनालय, शिलालेख, विज्ञान, कला आदि से ओतप्रोत है । यहाँ पर जैनत्व के अनमोल जवाहरात बिखरे पड़े हैं। इन रत्नों का परिचय होना जैन समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक है । यहाँ के खण्डहरों का अवलोकन करेंगे तो स्पष्ट विदित होगा कि एक समय में जैन समुदाय के लोग कितनी तादाद में रहे होंगे और उन लोगों ने जैन धर्म की आराधना की होगी। यहाॅ की पवित्र तपोभूमियां त्यागी महात्माओं के त्याग के रजकणों से भरी पड़ी है। जिस प्रकार हमारे तीर्थंकर परम देवों ने उत्तर भारत को दिव्य चरणों से पवित्र किया है तदनुसार अत्यन्त उद्भट महती प्रभावना से ओतप्रोत आचार्यों ने तमिल प्रान्त को एकदम पवित्र बनाया है । इस प्रदेश में दिगम्बर जैनाचार्यों के संचार ने जैन संस्कृति को अत्यन्त प्रगतिशील बनाया है, मगर कारणवश उसका पतन हुआ है । आचार्य भद्रबाहु महाराज के साथ १२ हजार मुनियों का विचरण दक्षिण भारत में हुआ । उनमें से आठ Jain Education International 140 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003645
Book TitleTamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2001
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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