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से बने कुंकुमादि से उपयुक्त मंत्र लिखा जाये। उन्होंने लिखा है
"कुंकुमा_लिखेद् यन्त्रं पात्रे स्वर्णादि निमिते । लवंगादि भवैः पुष्पः पद्मराग सम प्रभः ॥"१
'ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमो मन्त्र जपेदष्टोत्तरं शतम् । पं. आशाधर ने ही 'प्रतिष्ठापाठ' में एक दूसरे स्थान पर लिखा है कि निवास भूमि के अग्रभाग में एक बिम्ब की प्रतिष्ठा करनी चाहिए, जिस पर स्वर्णलेखनी से सुन्दर अक्षरों में यंत्र बनाया गया हो। उस भूमि में विराजमान वह आचाल्य बिम्ब ऐसा ही है, जैसे मनः प्रसत्ति में रहस्य । ऐसी भूमि श्लाघनीय होती है--
"आचाल्य बिम्बेऽग्रनिवासभूमौ विलेखनीयं पटुत्त्विकेन । सुवर्णलेखन्यजयन्त्रधार्या
श्लाध्या रहस्येव मनः प्रसत्तौ ॥"२ भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में वर्णमाला का ज्ञान कराने के लिए स्वर्णपट्ट के प्रयोग की बात लिखी है। भगवान् ऋषभदेव की दो पुत्रियाँ थींब्राह्मी और सुन्दरी । एक दिन दोनों को बुलाकर भगवान् ने कहा कि हे पुत्रियो ! तुम दोनों के विद्याग्रहण करने का यही समय है, अतः तुम दोनों विद्या-ग्रहण करने में प्रयत्न करो। भगवान ने ऐसा कहकर तथा बार-बार आशीर्वाद देकर विस्तृत स्वर्णपट्ट पर अ, आ आदि वर्णमाला तथा इकाई-दहाई अंकों को स्वयं लिखा, फिर उनसे लिखवाया।
"तद्विद्याग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुत युवाम् । तत्संग्रहण कालोऽयं युवायोर्वर्ततेऽधुना ॥ इत्युक्त्वा मुहुराशास्य विस्तीर्णे हेमपट्टके । अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवीं सपर्यया ॥ विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् ।
उपादिशल्लिपि संख्यास्थानं चाङकैरनुक्रमात् ॥"3 स्वर्ण पट्टों के साथ रजत पत्रों का भी प्रचलन था। उन पर या तो 'नमस्कार मंत्र' (णमोकार मंत्र) लिखा होता था अथवा कोई यंत्र (ऋषिमण्डल आदि) खुदा होता था।' यंत्र के आकार के बीच में तत्सम्बन्धी मंत्र तथा उसके अक्षर १. पं. आशाधर, प्रतिष्ठापाठ, १३२, पृ. ४१६-१७. २. पं. आशाधर, प्रतिष्ठापाठ, १३२, पृ. ४१४. ३. भगवज्जिनसेनाचार्य, महापुराण, १६/१०२-१०४. ४. ओझा, प्राचीनलिपिमाला, पृ. १५२, पादटिप्पड़, ५..
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