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________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ३४ अध्ययन २: श्लोक : टि० ३७ श्लोक: ३७. हट ( हडोग) 'सूत्रकृताङ्ग' में 'हड' को 'उदक-योनिक', 'उदक-संभव' वनस्पति कहा गया है । वहाँ उसका उल्लेख उदक, अवग, पणग, सेवाल, कलम्बुग के साथ किया गया है । 'प्रज्ञापना' सूत्र में जलरुह वनस्पति के भेदों को बताते हुए उदक आदि के साथ 'हढ' का उल्लेख मिलता है । इसी सूत्र में साधारण-शरीरी बादर-वनस्पतिकाय के प्रकारों को बताते हुए 'हड' बनस्पति का नाम आया है । आचाराङ्ग नियुक्ति में अनन्त-जीव बनस्पति के उदाहरण देते हुए सेवाल, कत्थ, भाणिका, अबक, पणक, किण्ण व आदि के साथ 'हढ' का नामोल्लेख है । इन समान उल्लेखों से मालूम होता है कि 'हड' वनस्पति 'हढ' नाम से भी जानी जाती थी। हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ एक प्रकार की अबद्धमूल वनस्पति किया है। जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ द्रह, तालाब आदि में होनेवाली एक प्रकार की छिन्नमूल वनस्पति किया है । इससे पता चलता है कि 'हड' विना मूल की जलीय वनस्पति है। _ 'सुश्रुत' में सेवाल के साथ हट, तृण, पद्मपत्र आदि का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि संस्कृत में 'हड' का नाम 'हट' प्रचलित रहा है । यहीं हट से आच्छादित जल को दूषित माना है। इससे यह निष्कर्ष सहज ही निकलता है कि 'हड' वनस्पति जल को आच्छादित कर रहती है। 'हढ' को संस्कृत में 'हट' भी कहा गया है। 'ह' वनस्पति का अर्थ कई अनुवादों में घास अथवा वृक्ष किया गया है। पर उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि ये दोनों अर्थ अशुद्ध हैं। 'हट' का अर्थ जलकुम्भी किया गया है । इसकी पत्तियां बहुत बड़ी, कड़ी और मोटी होती हैं । ऊपर की सतह मोम जैसी चिकनी होती है । इसलिए पानी में डूबने की अपेक्षा यह आसानी से तैरती रहती है । जलकुम्भी के आठ पर्यायवाची जाम उपलब्ध हैं। १--सू० २.३.५४ : अहावर पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुक्कमा णाणाविह जोणिएसु उदएसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालताए कलंबुगत्ताए हडताए कसेरुगताए । विउदृन्ति । २–प्रज्ञा० १.४३ : से कि तं जलरुहा ?, जलरुहा अगोगविहा पन्नत्ता, तंजहा... उदए, अवए, पणए, सेवाले, कलंबुया, हढे य। ३-प्रज्ञा० १.४५ : से कि तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया ? साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पन्नत्ता। तंजहा किमिरासि भद्दमुत्था णंगलई पेलुगा इय। किण्हे पउले य हढे हरतणुया चेव लोयाणी ॥६॥ ४---आचा०नि० गा० १४१: सेवालकत्थभाणियअवए पणए य किनए य हढे। एए अणन्तजीवा भणिया अण्णे अणेगविहा ।। ५--हा० टी० ५० ६७ : हडो"अबद्धमूलो बनस्पतिविशेषः । ६-जि० चू० ८६ : हढो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिषु छिण्णमूलो भवति । ७-सुश्रुत (सूत्रस्थान ) ४५.७ : तत्र यत् पङ्कशैवालहटतृणपद्मपत्रप्रभृतिभिरवच्छन्नं शशिसूर्यकिरणानिल भिजुष्टं गन्धवर्णरसोप सृष्टञ्च तद्व्यापन्नमिति विद्यात् । -आचा० नि० गा० १४१ की टीका : सेवालकत्थभाणिकाऽवकपनककिण्वहठादयोऽनन्तजीवा गदिता । k--(क) Das. (का० वा० अभ्यधुर) नोट्स पृ० १३ : The writer of the Vritti explains it as a kind of grass which leans before every breeze that comes from any direction. (ख) समी सांजनो उपदेश (गो० जी० पटेल) पृ० १६ : ऊंडां मूल न होवाने कारणे वायुथी आम तेम फेंकाता 'हड' नामना घास। १०--दश० (जी. घेलाभाई) पत्र ६ : हड नामा वृक्ष समुद्र ने कीनारे होय छे । तेनु मूल बराबर होतूं नथी, अने माथे भार घणो होय छे अने समुद्रने किनारे पवननु जोर घणु होवाथी ते वृक्ष उखडीने समुद्रमा पडे अने त्यां हेराफेरा कर्या करे। ११–सुश्रुत० (सूत्रस्थान)४५.७ : पाद-टिप्पणी न०१ में उद्धत अंश का अर्थ :- हटः जलकुम्भिका, अभूमिलग्नमूलस्तृणविशेषः इत्येके। १२-शा० नि० पृ० १२३० : कुम्भिका वारिपर्णी च, बारिमूली खमूलिका। आकाशमूली कुतणं, कुमुदा जलवल्कलम् ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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