SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 625
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७४ दसवेआलिय ( दशवकालिक ) नियत्तणे वट्टइ सच्चवाई । (६।३।३) सत्य का शोधक नम्र होता है। वक्ककरे स पुज्जो। (६।३।३) अनुशासन मानने वाला ही पूज्य होता है। मुहुत्तदुक्खा हु हवंति कंटया अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ (६।३७) लोहमय कांटे अल्पकाल तक दुःखदायी होते हैं और वे भी शरीर से सहजतया निकाले जा सकते हैं, किन्तु दुर्वचन रूपी कांटे सहजतया नहीं निकाले जा सकने वाले, वैर की परम्परा को बढ़ाने वाले और महाभयानक होते हैं। गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू । (३।३।११) साधु और असाधु गुण से होता है, जन्म से नहीं। गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू । (६।३।११) साधु बनो असाधु नहीं। सुयं मे भविस्सइ ति अज्झाइयव्वं भवइ । (६४सू०५) मुझे श्रुत प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । (६४सू०५) मैं एकाग्रचित्त होऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए । अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । (३।४।सू०५) मैं आत्मा को धर्म में स्थापित करूँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। ठिओ परं ठावइस्सामि ति अज्झाइयव्वं भवइ । (३।४।सू०५) मैं धर्म में स्थिर होकर दूसरों को उसमें स्थापित करूँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। नो इहलोगट्ट्याए तवमहिढेज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिठेज्जा, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्ठयाए तवमहिछेज्जा, नन्नत्थ निज्जरठ्याए तवमहिट्ठज्जा। (६।४।सू०६) (१) इहलोक के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। (२) परलोक के निमित्त तप नहीं करना चाहिए । (३ ) कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। ( ४ ) निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए। निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा । (१०११) ___ सदा प्रसन्न (आत्म-लीन) रहो । वंतं नो पडियायई। (१०११) वमन को मत पीओ। अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पि काए। (१०५) सबको आत्म-तुल्य मानो। न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा। (१०१०) कलह को बढ़ाने वाली चर्चा मत करो। समसुहदुक्खसहे । (१०।११) सुख-दुःख में समभाव रखो । न सरीरं चाभिकखई। (१०।१२) शरीर में आसक्त मत बनो। पुढवि समे मुणी हवेज्जा (१०।१०) ____ पृथ्वी के समान सहिष्णु बनो । न रसेसु गिद्धे। (१०।१७) स्वाद-लोलु मा बनो। न परं बएज्जासि अयं कुसीले। (१०।१७) दूसरों को बुरा-भला मन कहो। अत्ताणं न समुक्कसे । (१०।१८) अहंकार मत करो। न जाइमत्ते न य रूवमत्त, न लाभमत्त न सुएणमत्त । (१०।१६) जाति, रूप, लाभ और श्रुत का गर्व मत करो। पत्त यं पुण्णपावं । (चू०१।सू०१ स्था०५१) पुण्य और पाप अपना-अपना है। मणुयाण जीविए कुसग्गजलबिदुचंचले । (चू०१।सू०१ स्था०१६) यह मनुष्य-जीवन कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की तरह चंचल है। देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो॥ (चू०१।१०) संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान ही सुखद होता है। और जो संयम में रत नहीं होते उनके लिए वही महानरक के समान दुःखद होता है। संभिन्न वित्तस्स य हेट्ठओ गई। (चू० १।१३) आचार-भ्रष्ट की दुर्गति होती है । न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई असासया भोगपिवास जंतुणो। न चे सरीरेण इमेण वेस्सई अविस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ (चू० १११६) यह मेरा दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीवों की भोगपिपासा अशाश्वत है । यदि वह इस शरीर के होते हुए न मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो अवश्य ही मिट जाएगी। चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं (चू० १३१७) शरीर को छोड़ दो पर धर्म को मत छोड़ो। अणुसोओ संसारो। (चू० २।३) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy