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________________ दुमपुफिया ( मपुष्पिका ) धर्म और अहिंसा आदि लक्षणों को अलग-अलग कहा गया है' । ८. देव भी ( देवा विग ) । जैन-धर्म में चारमति के जीव माने गये हैं-नरक, तिर्यञ्च मनुष्य और देव इनमें देव सबसे अधिक ऐवशाली और प्रमुख ऐश्वर्यशाली वाले होते हैं। साधारण लोग उनके अनुग्रह को पाने के लिए उनकी पूजा करते हैं। यहाँ कहा गया है कि जिसकी आत्मा धर्म में लीन रहती है उस धर्मात्मा की महिमा देवों से भी अधिक होती है, क्योंकि मनुष्य की तो बात ही क्या लोकपूज्य देव भी उसे नमस्कार करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि नरपति आदि तो धर्मी की पूजा करते ही हैं, महाऋद्धि-सम्पन्न देव भी उसकी पूजा करते हैं । यह धर्म -पालन का आनुषंगिक फल है। यहाँ यह बतलाया गया है कि धर्म से धर्मी की आत्मा के उत्कर्ष के साथ-साथ उसे असाधारण सांसारिक पूजा- मान-सम्मान आदि भी स्वयं प्राप्त होते हैं। पर धर्म से आनुषंगिक रूप में सांसारिक ऋद्धियाँ प्राप्त होने पर भी धर्म का पालन ऐसे सावद्य हेतु के लिए नहीं करना चाहिए। 'नम्नत्व निज्जरवाएं निर्जश के अतिरिक्त अन्य किसी हेतु से धर्म की आराधना न की जाय, यह भगवान् की आज्ञा है । श्लोक २ : ह अध्ययन १ श्लोक २-३ टि० ६-१२ ६. थोड़ा-थोड़ा पीता है ( आवियइ ख ) : 'आदि' का अर्थ है घोड़ा-थोड़ा पीना अर्थात् मर्यादापूर्वक पीना तात्पर्य है जिस प्रकार फूलों से रसग्रहण करने में अमर मर्यादा से काम लेता है उसी प्रकार गृहस्थों से आहार की गवेषणा करते समय भिक्षु मर्यादा से काम ले – थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे । १०. किसी भी पुष्प को ( पुप्फंग ) : - द्वितीय श्लोक के प्रथम पाद में 'पुप्फेसु' बहुवचन में है। तीसरे पाद में 'पुष्क' एकवचन में है। 'न य पुप्फ' का अर्थ है – एक भी पुष्प को नहीं – किसी भी पुष्प को नहीं । ११. म्लान नहीं करता ( न य किलामेइ ग ) : यह मधुकर की वृत्ति है कि वह फूल के रूप व या गन्ध को हानि नहीं पहुंचाता। इसी प्रकार भ्रमण भी किसी को वेदन्नि किये बिना, जो जितना प्रसन्न मन से दे उतना ले। 'धम्मपद' (पुप्फवग्गो ४.६ ) में कहा है : यथापि भमरो पुप्फं वण्णगन्धं अहेव्यं । पलेति रसमादाय एवं गाने सुनी चरे ॥ - जिस प्रकार फूल या फूल के वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुँचाये भ्रमर रस को लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गाँव में विचरण करे । श्लोक ३ : १२. ( एमेए क ) : 'अगस्त्य - चूर्णि' में 'एमेए' ( एवम् एते) के ' एवं ' के 'व' का लोप माना है । प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'एवमेव' का रूप 'एमेव' बनता है'। 'एमेव' पाठ अधिक उपयुक्त है। किन्तु सभी आदर्शों और व्याख्याओं में 'एमेए' पाठ मिलता है, इसलिए मूलपाठ उसी को माना है । १- (क) जि० चू० पृ० ३७-३८ : सीसो आह- धम्मग्गहणेण चेव अहिंसासंजमतवा घेप्यंति, कम्हा ? जम्हा अहिंसा संजमे तव चैव धम्मो भवइ, तम्हा अहिंसासंजमतवग्गहणं पुनरुत्तं काऊण ण भणियध्वं । आचार्याह- अनैकान्तिकमेतत्, अहिंसासंजमतवा हि धर्मस्य कारणानि, धर्मः कार्य, कारणाच्च कार्यं स्याद् भिन्नं कथमिति ? अत्रोच्यते, अन्यत्कार्यं कारणात् अभियानप्रयोजनमेवदर्शनात् पटपडवत्अहवा अहिंसासंजमतवगह सीसस्स संदेहो नय पम्मबहु कतरो एसि सम्मपदेसादीनं धम्माणं मंगल मूषिक भव ? अहिंसासंगमतवाले पुण नजर जो अहिंसाम मंगल भवइ । (ख) नि० ० ४८, हा० टी० १० १२ धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमतपत्र हणमयुक्तं तस्य अहिंसासंयमतपोपत्वाव्यभिचारादिति, उच्यते, न अहिंसादीनां धर्मकारणत्वाद्धर्म्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्च कथञ्चिद्भेदात् कथञ्चिद्भेदश्च तस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वात् उक्तं च- ' णत्थि पुढवीविसिट्ठो घडोत्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो । जं पुण घडुत्ति पुव्वं नासी पुढवी तो अम्मी' गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन सरस्वरूपज्ञापनार्थ वाऽहिंसादिग्रहणमदृष्टं इति । २- अ० चू० पृ० ३२ : वकारलोपो सिलोगपायाणुलोमेणं । ३-०८-१-२०१ मालाजीवितावर्तमानावटप्रावारक देवकुमेवेयः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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