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________________ स- भिक्खु (सभिक्षु ) ४६५ अध्ययन १० श्लोक १५ टि० ५०-५२ कुछ मानते हैं | उनसे मतभेद दिखाने के लिए भी 'काय' का प्रयोग हो सकता है'। जैन दृष्टि यह है कि जैसे मन का नियन्त्रण आवश्यक है, वैसे काया का नियंत्रण भी आवश्यक है और सच तो यह है कि काया को समुचित प्रकार से नियंत्रित किए बिना मन को नियंत्रित करना हर एक के लिए संभव भी नहीं है । ५०. परीबहों को ( परीसहाई क ) निर्जरा ( आत्म-शुद्धि) के लिए और मार्ग से न होने के लिए जो अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियां और मनोभाव सहे जाते हैं, वे परीषह कहलाते हैं । वे क्षुधा, प्यास आदि बाईस हैं । ५१. जाति-पव (संसार) से ( जाइपहाओ दोनों घूर्णियों में 'जातिवह' और टीका में 'जातिपह' - ऐसा पाठ है । 'जातिवह' का अर्थ जन्म और मृत्यु' तथा 'जातिपथ' का अर्थ संसार किया है' । 'जातिपथ' शब्द अधिक प्रचलित एवं गम्भीर अर्थवाला है, इसलिए मूल में यही स्वीकृत किया है । ख ५२. (ये) 'णिद्वय में 'भवे' और टीका में 'तवे' पाठ है । यह सम्भवतः लिपिदोष के कारण वर्ण-विपर्यय हुआ है। श्रामण्य में रत रहता है। यह सहज अर्थ है । किन्तु 'तवे' पाठ के अनुसार — श्रमण-सम्बन्धी तप में रत रहता है - यह अर्थ करना पड़ा । श्रामण्य को तप का विशेषण माना है, पर वह विशेष अयान नहीं है। - ) क १३. हाथों से संवत, पैरो से संयत ( हत्यसंजर पायसंजए ) १ जो प्रयोजन न होने पर हाथ-पैरों को कूर्म की तरह गुप्त रखता है और प्रयोजन पर प्रतिलेखन, प्रमार्जन कर सम्यक् रूप से व्यवहार करता है, उसे हाथों से संयत, पैरों से संयत कहते हैं । देखिए 'संजईदिए' का टिप्पण ५५ । श्लोक १५: (क) अ० चू० : परीसहा पायेण कायेण सहणीया अतो कायेणेति भण्णति । जे बोद्धादयो चित्तमेवणियंतव्यमिति तप्पडिसेधणत्थं कायवयणं । (ख) जि० पू० पू० ३४५ सस्थाणं चेत्तवेतसिगा धन्मा इति ले गिरोहणत्वमिदमुच्यते । २ ० ० ० २६७ 'कान' शरीरेणापि न सिद्धान्तनीत्या मनोवाग्यामेन कायेनानभिभवे तस्वतस्तदनभिभवात् । ७ ३ - तत्त्वा० ६.८ : मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः । Jain Education International ४-- उत्त० २ । ५ (४) अ० ०: जातिगत (ख) जि० ० ० ३४५ जातिगण जम्यणस्स ग्रहणं कयं वधग्रहणं मरणस्स ग्रहणं कथं । ६- हा० टी० १० २६७ 'जातियत्' संसारमात् । (क) अ० ० भरते सामलिए समणभावो सामणियं तम्मि रतो भवे । (ख) जि० चू० पृ० ३४५ : सामणिए रते भवेज्जा, सामणभावो सामणियं भन्नइ । (ग) हा० टी० प० २६७ : 'तपसि रतः तपसि सक्तः, किंभूत इत्याह- 'श्रमध्ये' श्रमणानां संबन्धिनि, शुद्ध इति भावः । - (क) जि० चू० पृ० ३४५ : हत्थपाहिं कुम्मो इव णिक्कारणे जो गुत्तो अच्छर, कारणे पडिलेहिय पमज्जिय वावारं कुव्वाइ, एवं कुव्यमाणो हत्थसंजओ पायसंजओ भवइ । (ब) हा टी० ० २६७ हस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विना कुर्मवत्सोन आस्ते कारणे च सम्यग्गति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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