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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४४४ अध्ययन ६ (द्वि०उ०) : श्लोक १४-१५ टि० १२-१६ १२. नैपुण्य ( णेउणियाणि ख ) : कौशल, वाण-विद्या', लौकिक कला, चित्र-कला। श्लोक १४ : १३ श्लोक : १३.१४. इनमें बन्ध, वध और परिताप के द्वारा अध्यापन की उस स्थिति पर प्रकाश पड़ता है जिस युग में अध्यापक अपने विद्यार्थियों को सांकल से बाँधते थे, चाबुक आदि से पीटते थे और कठोर वाणी से भर्त्सना देते थे । १४. ललितेन्द्रिय ( ललिइंदिया घ): जिनकी इन्द्रियाँ ललित क्रीडाशील या रमणीय होती हैं, वे ललितेन्द्रिय कहलाते हैं। अगस्त्य धूणि में वैकल्पिक व्याख्या 'लालितेंदिय' शब्द की हुई है। जिनकी इन्द्रियाँ सुख के द्वारा लालित होती हैं, उन्हें लालितेन्द्रिय कहा जाता है। 'लकार' को ह्रस्वादेश करने पर ललितेन्द्रिय हो जाता है । श्लोक १५: १५. सत्कार करते हैं ( सक्कारंति ग): किसी को भोजन, वस्त्र आदि से सम्मानित करना ‘सत्कार' कहलाता है । १६. नमस्कार करते हैं ( नमसंति ग ): __गुरुजन के आने पर उठना, हाथ जोड़ना आदि 'नमस्कार' कहलाता है। अगस्त्यचूणि में इसके स्थान पर 'समाणेति' पाठ है और उसका अर्थ स्तुति-वचन, चरण-स्पर्श आदि किया है। १-अ० चू० : ईसत्थसिक्खाकोसलादीणि । २--जि० चू० पृ० ३१३ : उणिआणि लोइयाओ कलाओ। ३-हा० टी०प० २४६ : 'नैपुण्यानि च' आलेख्यादिकलालक्षणानि । ४-(क) अ० चू : बंधं णिगलादीहिं बधं लकुलादीहिं घोरं पासत्थिपाण भयाणट्ठां परितावणं अंगभंगादीहिं । (ख) जि० चू० पृ० ३१३, ३१४ : तत्थ निगलादीहिं बंध पार्वेति, वेत्तासयादिहिं य बंधं घोरं पावेंति, तओ तेहिं बंधेहि वधेहि य परितावो सुदारुणो भवइत्ति, अहवा परितावो निठुरचोयणतज्जियस्स जो मणि संतावो सो परितावो भण्णइ। (ग) हा० टी० प० २४६ : 'बन्ध' निगडादिभिः 'वधं' कषादिभिः 'घोरं' रौद्रं परितापं च 'दारुणम् एतज्जनितमनिष्टं निर्भर्स नादिवचनजनितम् । ५.--- (क) अ० चू० : ललिताणि नाङगातिसुक्खसमुदिताणि इंदियाणि जेसि रायपुत्तप्पभीतीण ते ललितेंदिया। (ख) जि० चू० पृ० ३१४ : ललिइंदिया णाम आगब्भाओ ललियाणि इंदियाणि जेसि ते ललिई दिया, अच्चन्तसहितत्ति वृत्तं भवति, ते य रायपुत्तादि । (ग) हा० टी०प० २४६ : 'ललितेन्द्रिया' गर्भेश्वरा राजपुत्रादयः । ६-अ० चू० : लालितें दिया वा सुहेहि, लकारस्स ह्रस्सादेसो । ७–(क) अ० चू० : भोयणच्छादण गंधमल्लेण य सक्कारंति । (ख) जि० चू० ० ३१४ : सक्कारो भोजणाच्छादणादिसंपादणओ भवइ । (ग) हा० टी०प० २५० : 'सत्कारयन्ति' वस्त्रादिना। ८-(क) जि० चू० पृ० ३१४ : णमंसणा अब्भुट्ठाणंजलिपग्गहादी। (ख) हा० टी० प० २५० : 'नमस्यन्ति' अञ्जलिप्रग्रहादिना । &-अ० चू० : युतिवयणपादोवफरिसं समयक्करणादीहि य समाणेति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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