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________________ टिप्पण : अध्ययन ६ ( द्वितीय उद्देशक ) श्लोक २: १. परम ( अंतिम ) फल ( परमो ख ) : उपमा में मूल और परम की मध्यवर्ती अपरम अवस्थाओं का उल्लेख है, परन्तु उपमेय में केवल मूल और परम का उल्लेख है। देवलोक-गमन, सुकुल में उत्पन्न होना, क्षीरास्रव, मध्वास्रव आदि यौगिक विभूतियों को प्राप्त होना विनय के अपरम तत्त्व हैं। २. श्लाघनीय ( सिग्धं ग ) : प्राकृत में श्लाघ्य के 'सग्छ' और 'सिग्छ' दोनों रूप बनते हैं। यह श्रुत का विशेषण है। अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'सग्धं' का प्रयोग किया है। सूत्रकृताङ्ग (१.३.२.१६) में भी 'सग्धं' रूप मिलता है-'मुंज भोगे इमे सग्घे'। ३. समस्त इष्ट तत्त्वों को (निस्सेसं घ ) : जिनदास चूणि में इसका प्रयोग 'कीर्ति, श्लाघनीय श्रुत इत्यादि समस्त' इस अर्थ में किया है । टीका के अनुसार यह श्रुत का विशेषण है । अगस्त्य घूरिण में इसे 'णिसेयसं' (निश्रेयस्-मोक्ष) शब्द माना है। श्लोक ३: ४. मृग ( मिए ) : मृग-पशु की तरह जो अज्ञानी होता है, उसे मृग कहा गया हैं । मृग शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । आरण्यक-पशु या सामान्य पशुओं को भी मृग कहा जाता है। ५ मायावी और शठ ( नियडी सढे ख ) : ___ अगस्त्य चूणि में इसका अर्थ 'माया के द्वारा शठ' किया है । टीका में इन दोनों को पृथक् मानकर 'नियडी' का अर्थ मायावी और 'सढे' का अर्थ संयम-योग में उदासीन किया है। १-(क) जि० चू० पृ० २०६ : अपरमाणि उ खंधो साहा पत्तपुप्फफलाणित्ति, एवं धम्मस्स परमो मोक्खो, अपरमाणि उ देवलोग सुकुलपच्चायायादीणि खोरासवमधुरासवादीणित्ति । (ख) हा० टी० प० २४७ । २-अ० चू० : सुतं च सग्घं साघणीयमविगच्छति । ३-जि० चू० पृ० ३०६ : एवमादि, निस्सेसं अभिगच्छतीति । ४–हा० टी०५० २४७ : 'श्रुतम्' अङ्गप्रविष्टादि 'इलाध्य' प्रशंसास्पदभूतं 'निःशेष' 'सम्पूर्णम्' 'अधिगच्छति'। ५- अ० चू० : णिसेयसं च मोक्खमधिगच्छति । ६-अ००: मंदबुद्धी मितो।। ७–सूत्र० १.१.२.६ वृ० : मृगा आरण्याः पशवः । 5-An animal in general (A Sanskrit English Dictionary). Page 689. -अ० चू० : नियडी मातातीए सढो नियडी सढो। १०-हा० टी० प० २४७ : 'निकृतिमान्' मायोपेतः 'शठः' संयमयोगेष्वनादृतः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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