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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) ४३८ अध्ययन ६ (द्वि० उ०) : श्लोक ७-१३ ७-तहेव लोगंसि दीसंति छाया अविणीयप्पा नरनारिओ। दुहमेहता विगलितेंदिया ॥ तथवाऽविनीतात्मानः, लोके नरनार्यः। दृश्यन्ते दुःखमेधमाना:, 'छाता' विकलितेन्द्रियाः ॥७॥ ७-८-लोक में जो पुरुष और स्त्री अविनीत होते हैं, क्षत-विक्षत या दुर्बल', इन्द्रिय-विकल, दण्ड और शस्त्र से जर्जर, असभ्य वचनों के द्वारा तिरस्कृत, करुण, परवश, भूख और प्यास से पीड़ित होकर दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। ८-दंडसत्यपरिजण्णा असम्भवयणेहि विवन्नछंदा खुप्पिवासाए परिगया ॥ दण्डशस्त्राभ्यां परिजीर्णाः, असभ्यवचनैश्च । करुणा विपन्नच्छन्दसः, क्षुत्पिपासया परिगताः ॥८॥ कलुणा ६-तहेव लोगसि दीसंति इडि ढ पत्ता सुविणीयप्पा नरनारिओ। सुहमेहता सहारामा महायसा ॥ तथैव सुविनीतात्मान:, लोके नरनार्यः । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धि प्राप्ता महायशस: ॥६ ---लोक में जो पुरुष या स्त्री सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। १०-तहेव अविणोयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति दुहमेहता आभिओगमुवट्रिया ॥ तथवाऽविनीतात्मान:, देवा यक्षाश्च गुह्यकाः। दृश्यन्ते दुःखमेधमाना:, आभियोग्यमुपस्थिताः ॥१०॥ १०--जो देव, यक्ष और गुह्यक (भवनबासी देव ) अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । ११-तहेव सुविणोयप्पा देवा जक्खा य गुज्झगा। दीसंति सुहमेहता इडिड पत्ता महायसा ॥ तथैव सुविनीतात्मानः, देवा यक्षाश्च गुह्यका:। दृश्यन्ते सुखमेधमाना: ऋद्धि प्राप्ता महायशसः ॥११॥ ११-जो देव, यक्ष और गुह्यक सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। १२-जे आयरियउवज्झायाण सुस्सूसावयणंकरा । तेसि सिक्खा पवड्ढंति जलसित्ता इव पायवा ॥ ये आचार्योपाध्याययोः, शुश्रूषावचनकरा:। तेषां शिक्षा: प्रवर्धन्ते, जलसिक्ता इव पादपाः ।।१२।। १२---जो मुनि आचार्य और उपाध्याय की शुश्रूषा और आज्ञा-पालन करते हैं, उनकी शिक्षा" उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे जल से सींचे हुए वृक्ष । १३--अप्पणट्ठा परट्ठा वा सिप्पा उणियाणि य। गिहिणो उवभोगट्ठा इहलोगस्स 'कारणा ॥ आत्मार्थं परार्थ वा, शिल्पानि नैपुण्यानि च । गहिण उपभोगार्थ, इहलोकस्य कारणाय ॥१३॥ १३-१४ - जो गही अपने या दूसरों के लिए, लौकिक उपभोग के निमित शिल्प" और नैपुण्य'२ सीखते हैं--- Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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