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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) ३६८ ७६. मन से भी इच्छा न करे ( मणसा वि न पत्थए घ ) : मन से भी इच्छा न करे, तब वचन और शरीर के प्रयोग की कल्पना ही कैसे की जा सकती है - यह स्वयंगम्य है' । श्लोक २६ : ८० प्रलाप न करे ( अतितिणे क ) : तेन्दु आदि की लकड़ी को अग्नि में डालने पर जो तिण-तिण शब्द होता है उसे तितिण' कहते हैं । यह ध्वनि का अनुकरण है । जो व्यक्ति मनचाहा कार्य न होने पर बकवास करता है उसे भी 'तितिण' कहा जाता है। आहार न मिलने पर या मनचाहा न मिलने पर जो प्रलाप नहीं करता वह 'अतिति' होता है । ८१. अल्पभाषी ( अप्पभासी ख ) : अल्पभाषी का अर्थ है कार्य के लिए जितना बोलना आवश्यक हो उतना बोलने वाला । ख ८२. मितभोजी (मियासणे ) : जिनदास णि के अनुसार इसका समास दो तरह से होता है । १. मित + अशनमिताशन २. मिसनमितासन अध्ययन : श्लोक २६ मिताशन का अर्थ मितभोजी और मितासन का अर्थ थोड़े समय तक बैठने वाला है। इसका आशय है कि श्रमण भिक्षा के लिए जाए तब किसी कारण से बैठना पड़े तो अधिक समय तक न बैठे । ८३ उदर का दमन करने वाला ( उयरे दंते ग ) : जो जिस तिस प्रकार के प्राप्त भोजन से संतुष्ट हो जाता है, वह उदर का दमन करने वाला कहलाता है । घ ८४. थोड़ा आहार पाकर दाता की निन्दा न करे ( थोवं लधुन लिए थोड़ा आहार पाकर श्रमण देय अन्न, पानी आदि और दायक की खिसना न करे, निन्दा न करे । १ – (क) जि० चू० पृ० २८४ : किमंग पुण वायाए कम्मुणा इति । (ख) हा० डी० प० २३२ मनसापि न प्रार्थयेत् किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा देति । ३– (क) अ० चू० पृ० १६२ : अप्पवादी जो कारणमत्तं जायणाति भासति (ख) जि० टि०७९-८४ २ (क) अ० चू० पृ० १९२ : तंबुरु विकट्ठडहणमिव तिणित्तिणणं तितिणं, तहा अरसादि न होलिउमिच्छतिति अतितिणे । (ख) जि० चू० पृ० २०४ जहा बिरुवामं अर्गाणमि पक्षिस तडतडली ग साहना तहावित (ग) हा० टी० प० २३३ : अतिन्तिणो नामालाभेऽपि नेमद्यत्किंचनभाषी । [० चू० पृ० २८४ : अप्पवादी नाम कज्जमेत्तभासी । Jain Education International (ग) हा० टी० प० २३३ : 'अल्पभाषी' कारणे परिमितवक्ता । ४ – (क) जि० चू० पू० २८४ : मितासने नाम मियं असतीति मियासणे, परिमितमाहारतित्ति वृत्तं भवति, अहवा मियासणे frage fromओ कारणे उवट्ठात् मितं इच्छइ । (ख) हा० टी० प० २३३ : 'मिताशनो' मितभोक्ता । ५- (क) जि० चू० पृ० २८४ : 'उदरं पोट्ट' - तमि दंतेण होयव्वं, जेण तेणेव संतुसियव्वंति । (ख) हा० टी० प० २३३ : 'उदरे दान्तो येन वा तेन वा वृत्तिशीलः । (क) जि० चू० पृ० २८४ : तं वा अण्णं पाणं दायगं वा नो खिसेज्जा । (ख) हा० टी० प० २३३ : 'स्तोकं लब्ध्वा न खिसयेत्' देयं दातारं वा न होलयेदिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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