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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३८८ अध्ययन ८ : श्लोक १५ टि० २६-३१ २६. विभिन्न प्रकार वाले ( विविहं क ) : इसका अर्थ हीन, मध्य और उत्कृष्ट' अथवा कर्म की पराधीनता से नरक आदि गतियों में उत्पन्न है। श्लोक १५: ३०. श्लोक १५: आठ सूक्ष्मों की व्याख्या इस प्रकार है : १-स्नेहपुष्प के पांच प्रकार हैं-ओस, बरफ, कुहासा ओला और उभिद् जलबिन्दु। २-पुष्पसूक्ष्म .....बड़, उम्बर आदि के फूल या उन जैसे वर्ण वाले दुर्विभाव्य फूल । ३-प्राण सूक्ष्म---अरणुद्धरी-कुंथु, जो चलने पर जाना जाता है किन्तु स्थिरावस्था में दुज्ञय है। ४-उत्तिग सूक्ष्म-कीटिका-नगर, जहाँ प्राणी दुज्ञेय हों। ५--पनक सूक्ष्म--काई। यह पाँच वर्ण की होती है। वर्षा में भूमि, काठ और उपकरण (वस्त्र) आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली उत्पन्न होती है। ६ –बीज सूक्ष्म-सरसों और शाल के अग्रभाग पर होने वाली कणिका, जिसे लोग 'सुमधु' भी कहते हैं । स्थानाङ्ग वृत्तिकार के अनुसार इसे लोक-भाषा में 'तुषमुख' भी कहा जाता है । ७-हरित सूक्ष्म-जो तत्काल उत्पन्न, पृथ्वी के समान वर्ण वाला और दुर्जेय हो वह अंकुर । ८- अंड-सूक्ष्म के पाँच प्रकार हैं--मधुमक्खी, कीड़ी, मकड़ी (स्थानाङ्ग ८.२० में वृत्तिकार ने लूता-मकड़ी के स्थान में गृहकोकिला--गिलहरी का उदाहरण दिया है) ब्राह्मणी और गिरगिट के अंडे" । ३१. उत्तिङ्ग ( उत्तिग ख ) : स्थानाङ्ग में आठ सूक्ष्म बतलाए हैं। दशवकालिक और स्थानाङ्ग के सूक्ष्माष्टक में अर्थ-दृष्टि से अभेद है। जो क्रम-भेद है उसका कारण गद्य और पद्य रचना है। शब्द-दृष्टि से सात शब्द तुल्य हैं केवल एक शब्द में अन्तर है। स्थानाङ्ग में 'लेण' है वहाँ दशवकालिक में 'उत्तिग' है। स्थानाङ्ग वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने 'लेण' का अर्थ जीवों का आश्रय-स्थान किया है । दशवकालिक १--अ० चू०प० १८७ : विविधमणेगागारं हीणमझाधिकभावेण । २-हा० टी० प० २२६ : विविधं 'जगत्' कर्मपरतन्त्र नरकादि गतिरूपम् । ३-जि० चू०प० २७८ : सिणेहसुहुमं पंचपगारं, तं-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए। ४-जि० चू०प० २७८ : पुष्फसुहुमं नाम वडउम्बरादीनि संति पुप्फाणि, तेसि सरिवन्नाणि दुविभावणिज्जाणि ताणि सुहमाणि । ५- जि० चू० पृ० २७८ : पाणसुहुमं अणुद्धरी कुंथू जा चलमाणा विभाविज्जइ थिर। दुब्विभावा । ६-अ० चू० पृ० १८८ : उत्तिगसुहुमं कोडियाधरगं, जे वा जत्थ पाणिणो दुट्विभावणिज्जा। ७-जि० चू० पु० २७८ : पणगसुहुमं णाम पंचवन्नो पणगो वासासु भूमिकट्टउवगरणादिसु तहव्वसमवन्नो पणगसुहमं । ८-जि० चू०प० २७८ : बीयसहुमं नाम सरिसवादि सालिस्स वा मुहमूले जा कणिया सा बीयसुहमं, सा य लोगेण उ समह (धुम)ति भण्णइ। ६-ठा० ८.३५ वृ : लोके या तुषमुखमित्युच्यते । १०-जि० चू० पृ० २७८ : हरितसुहुमं णाम जो अहुणुट्ठियं पुढविसमाणवणं दुन्विभावणिज्ज तं हरियसहमं । ११-अ० चू० पृ० १८८ : उद्दसंडं महुमच्छिगादीण। कोडियाअंडगं-पिपीलियाअंडं, उक्कलिअंडं लूयापडागस्स। हलियंडंबंभणि ___याअंडगं, सरडिअंडगं-हल्लोहल्लिअंडं। १२-ठा० ८.३५ : अट्ठ सुहुमा पं० त० पाणसुहुमे, पणगसुहुमे, बोयसुहुमे, हरियसुहुमे, पुप्फसुहुमे, अंडसुहुमे, लेणसुहुमे, सिणेहसुहमे । १३-ठा० ८.३५ ००:लयनम्-आश्रय: सत्वानाम्, तच्च कोटिकानगरादि, कोटिकाश्चान्ये च सूक्ष्मा: सत्वा भवन्तीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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