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________________ आयारपणिही (आचार-प्रणिधि) ३७७ अध्ययन ८: श्लोक २८-३४ २८-अत्थंगयम्मि आइच्चे पुरत्था य अणुग्गए। आहारमइयं ८ सव्वं मणसा वि न पत्थए। अस्तङ्गते आदित्ये, पुरस्तात् चानुद्गते । आहारमयं सर्व, मनसापि न प्रार्थयेत ॥२८॥ २८-सूर्यास्त से लेकर ६ पुन: सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करें। २६-अतितिणे अचवले अप्पभासी मियासणे। हवेज्ज उयरे दंते थोवं लर्बु न खिसए॥ 'अतितिणः' अचपलः, अल्पभाषी मिताशनः। भवेदुदरे दान्तः, स्तोक लब्ध्वा न खिसयेत् ॥२६॥ २६-आहार न मिलने या अरस आहार मिलने पर प्रलाप न करे, चपल न बने, अलभाषी, मितभोजी२ और उदर का दमन करने वाला हो । थोड़ा आहार पाकर दाता की निन्दा न करे८४ । ३०---"न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे । सुयलाभे न मज्जेज्जा जच्चा तवसिबुद्धिए॥ न बाह्य परिभवेत्, आत्मानं न समुत्कर्षयेत् । श्रुतलामे न माद्यत, जात्या तपस्वि-बुद्ध्या ॥३०॥ ३०-दूसरे का तिरस्कार न करे । अपना उत्कर्ष न दिखाए । श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि का मद न करे। ३१-८से जाणमजाणं वा कटु आहम्मियं पययं। संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे॥ अथ जानन्न जानन्वा, कृत्वा अधार्मिकं पदम् । संवृणुयात् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तं न समाचरेत् ॥३१॥ ३१-जान या अजान में कोई अधर्मकार्य कर बैठे तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा ले, फिर दूसरी बार वह कार्य न करे। ३२-अणायारं परक्कम्म नेव गृहे न निण्हवे। सुई सया वियडभावे अस सत्त जिइंदिए॥ अनाचारं पराक्रम्य, नैव गुहेत न निन्हुवीत । शुचिः सदा विकटभावः, असंसक्तो जितेन्द्रियः ॥३२॥ ३२--अनाचार का सेवन कर उसे न छिपाए और न अस्वीकार करे६३ किन्तु सदा पवित्र, स्पष्ट९५, अलिप्त और जितेन्द्रिय रहे। ३३--अमोहं वयणं आयरियस्स तं परिगिज्झ कम्मुणा कुज्जा महप्पणो। वायाए उववायए॥ अमोघं वचनं कुर्यात्, आचार्यस्य महात्मनः । तत्परिगृह्य वाचा, कर्मणोपपादयेत् ॥३३॥ ३३ - मुनि महान् आत्मा आचार्य के वचन को सफल करे। (आचार्य जो कहे) उसे वाणी से ग्रहण कर कर्म से उसका आचरण करे। ३४-अधुवं जीवियं नच्चा सिद्धिमग्गं वियाणिया। विणियट्ट ज्ज भोगेसुई । आउं परिमियमप्पणो॥ अध्र वं जीवितं ज्ञात्वा, सिद्धिमार्ग विज्ञाय । विनिवर्तेत भोगेभ्यः, आयुः परिमितमात्मनः ॥३४॥ ३४-मुमुक्षु जीवन को अनित्य और अपनी आयुको परिमित जान तथा सिद्धि-मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर भोगों से निवृत्त बने । dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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