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________________ वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि) ४२ - पयत्तपक्के त्ति व पक्कमालवे पयत्तन्निति व छिन्नमालवे । पत्ति व कम्महे व्यं पहारगाढ ति व गाढमाल || ॥ ४३ -- सव्वुक्क सं अलं ४४- सम्यमेयं सत्यमेवं अणुवी एवं अचक्कियमवत्तन्वं अचितं ४५ -- सुक्कीयं नत्थि परग्धं वा एरिसं । चेव नो वा सुदिश्कीय केज्जमेव वा । अकेज्जं इमं गेण्ह इमं इमं मुंच पणिय वियागरे ॥ नो ४६ -- अप्पग्धे वा ४८ बहवे वहस्सामि तिनो पए। सव्वं सव्वत्य भासेज्ज पन्नवं ॥ ४७ ---तवा संजयं कए वा विक्कए वि पणिय अणवज्जं Jain Education International वए ॥ महग्ये वा वा । समुन् वियागरे ॥ वा । आस एहि करेहि सय चिट्ठ वयाहि ति नेवं त्ति, भासेज्ज पन्नवं ॥ धीरो इमे लोए वृच्वंति न लये असाहं साहू शि साहू साहू सि आलवे ॥ असाहू साहूणो । ३४३ प्रयत्नस्वमिति वा पश्चपेत् प्रयत्नन्निमितिया नात्। मितवा कर्महेतुकम् पारमिति वा ॥४२॥ सर्वोत्कर्ष परार्ध वा अनु अशक्यमवक्तव्यम् अचिन्त्यं चैव नो वदेत् ॥ ४३ ॥ सर्वमेतदिध्यागि नोत् । अनुविविच्य सर्व सर्वत्र, एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥ ४४ ॥ सुसंवा अक्रेयं यमेव वा । इदं गृहाण इदं मुञ्च, पप्यं नो व्याखीयात् ॥ ४५ ॥ पायें वा महावा, *ये वा विक्रयेऽपि वा । पायें समुत्यन्ने अनवद्य' व्यामृणीयात् ॥४६॥ धीरः आस्व एहि कुरु वा । शेष्व तिष्ठ व्रज इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥४७॥ बहव इमे असाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः । न साधु साधुरिति, साधु साधुरित्यालपेत् ॥४८॥ For Private & Personal Use Only अध्ययन ७ : श्लोक ४२-४८ ४२ (योजन कहना हो तो) सुपक्य को प्रयत्न पक्व कहा जा सकता है। सुच्छिन्न को प्रयत्नच्छिन्न कहा जा सकता है, कर्मविज्ञापूर्वक किए हुए) को प्रयत्नलष्ट कहा जा सकता है। गाढ़ (गहरे घाव वाले) को प्रहार गाढ़ कहा जा सकता है । ४३ ( क्रय-विक्रय के प्रसंग में ) यह वस्तु सर्वोत्कृष्ट है, यह बहुमूल्य है, यह तुलनारहित है. इसके समान दूसरी वस्तु कोई नहीं है, इसका पोल करना शक्य नहीं है", इसकी विशेषता नहीं कही जा सकती", यह अचिन्त्य है - इस प्रकार न कहे। ४४ - (कोई सन्देश कहलाए तब ) मैं यह सब यह दुगा, (किसी को सन्देश देता हुआ यह है (अविकल या ज्यों का त्यों है) इस प्रकार कहे सब प्रसंगों में पूर्वोक्त सब वचन-विनियों का अनुचिन्तन कर प्रज्ञावान् गुनि वैसे बोले (जैसे कर्मबन्ध न हो ) । ४५ -- पण्य वस्तु के वारे में (यह माल ) अच्छा खरीदा ( बहुत सस्ता आया ), ( यह माल) अच्छा वेचा (बहुत नफा हुआ), यह बेचने योग्य नहीं है, यह बेचने योग्य है, इस माल को ले ( यह मंहगा होने वाला है ), इस माल को बेच डाल (यह सस्ता होने वाला है ) - इस प्रकार न कहे । ४६ - अल्पमूल्य या बहुमूल्य माल के लेने या बेचने के प्रसङ्ग में सुनि अनवद्य वचन बोले विक्रम से विरत का इस विषय में कोई अधिकार नहीं है इस प्रकार कहे । ४७ इसी प्रकार धीर और प्रज्ञावान् मुनि असंयति (गृहस्थ ) को बैठ, इधर आ ( अमुक कार्य ) कर, सो, ठहर या खड़ा हो जा, चला जा - इस प्रकार न कहे । में ४८. - ये बहुत सारे असाधु जन-साधारण को साधु 'साधु कहलाते हैं । मुनि असाधु न कहे, जो साधु हो उसी को साधु कहे ३ । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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