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________________ चक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि ) २८ - पी. ए पंगरे य सिदा जंतलट्ठी अंतली व नाभी वा नगते मा मंडिया व अलं सिया || " ॥ २६-- आसणं सयणं जाणं होन्या या विस्सए । भूओवघाइनि भासं नेवं भासेज पन्नवं ॥ ३० – तहेव पव्ययाणि प्राणि थ | स्पा महल्ल पेहाए एवं भासेज्ज पन्नवं ॥ ३१ - जाइता बी पयायसाला वए ३२- तहा गंतुभुज्जाणं ३३- १५असं डा पलाई पक्काई पायलज्जाई नो थए । बेलोइयाई देहिमा सि टालाई तिनो वए ॥ भएम भूयरूय इसे रुवखा महालया । विडिमा दरिमणि महाफला Jain Education International त्तिय ॥ इथे अंबा 1 संभूया ति वा पुणो ॥ पठायो ३४ - बोसोओ नीबाओ बीइय। लाइमा भमिओ सि पिहुखज्ज खिन्न त्ति नो बए ॥ ३४१ पीठकाय 'चंगवेराय' च, लाङ्गलाय 'मधिका' स्यात् । या नावा गंडिकायै वा अलं स्यात् ॥ २८ ॥ आसनं शयनं यानं, भवेद्वा किञ्चिदुपाश्रये । भूतोपघातिनीं भाषां नैवं भाषेत प्रज्ञावान् ||२६|| तथैव गत्वोद्यानं, पर्वतान् वनानि च । ज्ञान महतः प्रेय एवं भाषेत प्रज्ञावान् ॥ ३०॥ जातिमन्त इमे रुक्षाः, दीर्घवृत्ताः महान्तः । प्रजातशाला विटपिन:, वदेद् दर्शनीया इति च ॥ ३१ ॥ तथा फलानि पक्वानि, पाकखाद्यानि नो वदेत् । वेलो चितानि 'टालाई", इति नोचे ।। ३२ ।। असंस्कृता मेधा, बहुनिर्वर्तित-फलाः । वदे बहुसंभूता भूतरूपा इति वा पुनः ॥ ३३ ॥ | तथैवोषधयः पक्वा, नीलिकाः छविमत्यः । लवनीया भर्जनीया इति, इति ॥३४॥ For Private & Personal Use Only अध्ययन ७ श्लोक २८-३४ ४५ २) पीठ, कापी हल, मयिक, कोल्हू, नाभि ( पहिए का मध्य भाग) अथवा अहरन के उपयुक्त हैं । २९ ( इन वृक्षों) में आसन, शयन, ४८ यान और उपाश्रय के उपयुक्त कुछ (काष्ठ) हैं- इस प्रकार भूतोपघातिनी भाषा प्रज्ञावान् भिक्षु न बोले। ३०-३१ – इसी प्रकार उद्यान, पर्वत और वन में जहाँ बड़े चों को देख ( प्रयोजनवश कहना हो तो ) प्रज्ञावान् भिक्षु यों कहे ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, लम्बे हैं, गोल हैं, महालय (बहुत विस्तार वाले अथवा स्कन्ध युक्त ) हैं४६ शाखा वाले हैं, प्रशाखा वाले हैं" और दर्शनीय हैं। ३२- तथा ये फल पक्व हैं, पकाकर खाने योग्य हैं" इस प्रकार न कहे। (तथा ये फल तोड़ने योग्य) इनमें गुठली नहीं पड़ी है ये दो टुकड़े करने योग्य फरक करने योग्य हैं ) - इस प्रकार न कहे । ३३ (प्रयोजन कहना हो तो ये आम्रवृक्ष अब फल- धारण करने में असमर्थ हैं, बहुनिर्वर्तित ( प्रायः निष्पन्न) फल वाले हैं, बहु-संभूत ( एक साथ उत्पन्न बहुत फल वाले) है अव भूतरूप (कोमल) - इस प्रकार कहे । ३४ - इस प्रकार औषधियां‍ पक गई हैं, अपक्व हैं, छवि ( फली) वाली काटने योग्य हैं, भूनने वा बनाकर खाने योग्य हैं—६° इस प्रकार न बोले । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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