SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८ अध्यय ७: श्लोक ७-१३ दसवैआलियं( दशवकालिक ) ७-एवमाई उ जा भासा एसकालम्मि संकिया। संपयाईयम? वा तं पि धीरो विवज्जए॥ एवमादिस्तु या भाषा, एष्यत् काले शङ्किता। साम्प्रतातीतार्थयो, तामपि धोरो विवर्जयेत् ॥७॥ दूसरी भाषा जो भविष्य-सम्बन्धी होने के कारण (सफलता की दृष्टि से) शंकित हो अथवा वर्तमान और अतीत काल-सम्बन्धी अर्थ के बारे में शंकित हो, उसे भी धीरपुरुष न बोले । ८...-१३अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए जमट्ठतु न जाणेज्जा एवमेयं ति नो वए॥ अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नाऽनागते । यमर्थं तु न जानीयात्, एवमेतदिति नो वदेत ॥८॥ ८-अतीत, वर्तमान और अनागत कालसम्बन्धी जिस अर्थ को (सम्यक् प्रकार से) न जाने, उसे 'यह इस प्रकार ही है'-ऐसा न कहे। &-अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए जत्थ संका भवे तं तु एवमेयं ति नो वए॥ अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नाऽनागते । यत्र शंका भवेत्तत्तु, एवमेतदिति नो वदेत् ॥६॥ 8-अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जिस अर्थ में शंका हो, उसे 'यह इस प्रकार ही है'-- ऐसा न कहे । १०.१४अईयम्मि य कालम्मी पच्चुप्पन्नमणागए । निस्संकियं भवे जंतु एवमेयं ति निदिसे ॥ अतीते च काले, प्रत्युत्पन्नाऽनागते । निश्शङ्कितं भवेद्यत्त, एवमेतदिति निदिशेत् ॥१०॥ १०-अतीत, वर्तमान और अनागत काल-सम्बन्धी जो अर्थ निःशंकित हो (उसके बारे में ) 'यह इस प्रकार ही है'---ऐसा कहे। ११–तहेव फरसा भासा गुरुभूओवघाइणी सच्चा वि सा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो॥ तथैव परुषा भाषा, गुरुभूतोपघातिनी। सत्यापि सा न वक्तव्या, यत: पापस्य आगमः ॥११॥ ११-इसी प्रकार परुष १५ और महान् भूतोषघात करने वाली ६ सत्य भाषा भी न बोले, क्योंकि इनसे पाप-कर्म का बंध होता १२-तहेव काणं काणे त्ति पंडगं पंडगे ति वा। वाहियं वा वि रोगि त्ति तेणं चोरे ति नो वए॥ तथैव कागं 'काण' इति, पण्डकं पण्डक इति वा। व्याधित वाऽपि रोगीति, स्तेनं "चोर' इति नो वदेत ॥१२॥ १२- इसी प्रकार काने को काना, , नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे। परो १३-एएणन्नेण वढण जेणुवहम्मई। आयारभावदोसन्नू न तं भासेज्ज पन्नवं ॥ एतेनाऽन्येन वाऽर्थेन, परो येनोपहन्यते। आचार-भाव-दोषज्ञः, न त' भाषेत प्रज्ञावान् ॥१३॥ १३-आचार (वचन-नियमन) संबंधी भाव-दोष (चित्त के प्रद्वष या प्रमाद) को जानने वाला प्रज्ञावान् पुरुष पूर्व श्लोकोक्त अथवा इसी कोटि की दूसरी भाषा, जिससे दूसरे को चोट लगे-न बोले । Jain Education Intemational Education International For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy