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________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) ७०. कुंडलोद ( कुंडमोस ) ): ६६. कांसे के प्याले ( कंसेसुक ) : स्वरि कांसे से बने हुए बर्तन को कंस' (कांस्य) कहते हैं। अगर प्याले या क्रीडायान के बर्तन को 'कंस' माना है'। जिनदास महत्तर थाल या खोरक गोलाकार बर्तन को 'कंस' मानते हैं। टीकाकार के अनुसार कटोरा आदि 'कंस' कहलाता है । कंस गगरी जैसा पात्र विशेष है । कुछ लोग इसे फूल या कांसे का पात्र समझते हैं। यूनानियों का ध्यान इसकी ओर गया था। उन्होंने लिखा है कि वह गिरते ही मिट्टी के पात्र की तरह टूट जाता था । अगस्त्यभूमि के अनुसार कच्छ आदि देशों में प्रचलित कुंड़े के आकार वाला कांसे का भाजन 'कुंडमोद' कहलाता है । जिनदास रिंग ने हाथी के पाँव के आकार वाले बर्तन को 'कुंडमोद' माना है। टीकाकार ने हाथी के पाँव के आकार वाले मिट्टी आदि के भाजन को 'कुंडमोद' कहा है। पुलिस में 'कुंडमोस' के स्थान में 'कॉक' पाठान्सर का उल्लेख है 'कोड' का अर्थ पात्र अथवा मिट्टी का पात्र' और 'कोस' का अर्थ शराव सकोरा " किया गया है। पीने का ७२. सवित जल ( सीओदग क ) ): यहां शीत का अर्थ सति' ७१. (पुणो ख ) : दोनों पूर्णिकारों के अनुसार 'पुनः' शब्द विशेषण' के अर्थ में है और इसके द्वारा सोने, चांदी आदि के बर्तन सूचित किए गए है। श्लोक ५१ ग ७३. ( धन्नंति " ) : १०० २००० २२० ३ हा० टी० प० २०३ फंसे षि के अनुसार यह धातु हम टीकाकार ने 'छिपति' पाठ मानकर उसके लिए संस्कृत धातु 'क्षिपन प्रेरणे' का प्रयोग किया है" । ३२३ श्लोक ५० : विहारो कां ते बट्टगातिसुतापा = - अ० चू० पृ० १५३ : १०० ५० १५३ जि० अध्ययन ६ इलोक ५०-५१ टि० ६९-७३ 993 १३ (क) १०० १० १५३ (ख) जि० ० पृ० २२८ ४ पा० भा० पृ० १४८ । ५०० पृ० १५३ कुंडाकुंडानेव महंत ६ जि० ० ० २२७ कुंडोपो नाम हत्यपदामितीसडियं कुंडमोपं । ७हा० ० ० २०३ कुंडमोदे हस्तिपादाकारेषु मृग्मयादिषु । 'जे पढत कोंडकोसेसु वा' तत्थ 'कोंडगं' तिलपोलणगं । Jain Education International । जणामि, साथि पुर्ण वातापि या खोरगाणि वा ते कंसेति । कटकादिषु । अन्ने पुर्ण एवं पति 'कोसेवा पुगों तत्थ कुण्डं पुढविमनं भवति । १० -- ( क ) अ० चू० पृ० १५३ : 'कोसे' सरावाती । (ख) जि० चू० पृ० २२७ : कोसग्गहणेण सरावादीणि गहियाणि । ११- अ० चू० पृ० १५३ : पुणा इति विसेसणो, रुप्पतलिकातिसु वा । (ख) जि० चू० पृ० २२७ : पुणो सद्दो विसेसणे वट्टति, कि विसेसयति ?, जहा अन्नेसु सुवन्नादिभायणे सुत्ति । १२ (क) जि० चू० पू० २२८ : सीतग्गहणेण सचेयणस्स उदगस्स गहणं कथं । (ख) हा० टी० प० २०४ : 'शीतोदक.......' सचेतनोदकेन । १४ - हा० टी० प० २०४ : ' क्षिप्यन्ते' हिंस्यन्ते । न्नति णु हिंसायामिति हिंसन्जति । सदो हिसाए बट्ट । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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