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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २८४ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २५, २६ टि० ४८-५० ४८. प्रियाल फल' (पियालं ग) : प्रियाल को चिरौंजी कहते हैं। 'चिरौंजी' के वृक्ष प्राय: सारे भारतवर्ष में पाये जाते हैं । इसके पत्ते छोटे-छोटे, नोकदार और खुरदरे होते हैं। इसके फल करोंदे के समान नीले रंग के होते हैं। उनमें से जो मगज निकलती है उसे चिरौंजी कहते हैं। श्लोक २५ : ४६: समुदान (समुयाणं क) : मुनि के लिए समुदान भिक्षा करने का निर्देश किया गया है। एक या कुछ एक घरों में से भिक्षा ली जाय तो एषणा की शुद्धि रह नहीं सकती, इसलिए अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लेना चाहिए, ऊँच और नीच सभी घरों में जाना चाहिए। जो घर जाति से नीच कहलाएँ, धन से समृद्ध न हों और जहाँ मनोज्ञ आहार न मिले उनको छोड़ जो जाति से उच्च कहलाएँ, धन से समृद्ध हों और जहाँ मनोज्ञ आहार मिले वहाँ न जाए । किन्तु भिक्षा के लिए निकलने पर जुगुप्सित कुलों को छोड़कर परिपाटी (क्रम) से आने वाले छोटे-बड़े सभी घरों में जाए। जो भिक्षु नीच कुलों को छोड़कर उच्च कुलों में जाता है वह जातिवाद को बढ़ावा देता है और लोग यह मानते हैं कि यह भिक्षु हमारा परिभव कर रहा है। ' बोद्ध-साहित्य में तेरह 'धुताङ्ग' बतलाए गए हैं। उनमें चौथा 'धुताङ्ग' सापदान-चारिकाङ्ग' है। गांव में भिक्षाटन करते समय बिना अन्तर डाले प्रत्येक घर से भिक्षा ग्रहण करने को 'सापदान-चारिकाङ्ग' कहते हैं । श्लोक २६: ५०. वन्दना (स्तुति) करता हुमा याचना न करे (वंदमाणो न जाएज्जा ग) : यहाँ उत्पादन के ग्यारहवें दोष 'पूर्व-संस्तव' का निषेध है। दोनों चूर्णिकारों और टीकाकार ने 'वंदमाणं न जाएज्जा' पाठ को मुख्य मानकर व्याख्या की है और 'वंदमाणो न जाएज्जा' को पाठान्तर माना है। किन्तु मूल पाठ 'वंदमाणो न जाएज्जा' ही होना चाहिए । इस श्लोक में उत्पादन के ग्यारहवें दोष—पुब्विपच्छा १-(क) अ० चू० पृ० १३० : पियालं पियालरुक्खफलं वा । (ख) जि० चू० पृ० १९८ : पियालो रुक्खो तस्स फलं पियालं । (ग) हा० टी०प०१८६ : 'प्रियालं वा' प्रियालफलं च । २-(क) अ० चू० पृ० १३१ : समुयाणीयंति-समाहरिज्जति तदत्यं चाउलसाकतो रसादीणि तदुपसाधणाणीति अण्णमेव __'समुदाणं चरे' गच्छेदिति । अहवा पुव्वणितमुग्गाप्पायणेसणासुद्धमण्णं समुदाणीयं चरे । (ख) जि० चू० पृ० १६८ : समुदाया णिज्जइति, थोवं थोवं पडिवज्जइति बुसं भवइ । (ग) हा० टी०प० १८६ : समुदानं भावभक्ष्यमाश्रित्य चरेद् भिक्षुः । ३-जि० चू० पृ० १९८-१६६ : 'उच्च” नाम जातितो णो सारतो सारतो णो जातीतो, एगं सारतोवि जाइओवि, एगं णो सारओ नो जाइओ, अवयमवि जाइयो एगं अवयं नो सारओ, सारओ एणं अवयं नो जाइओ, एगं जाइओऽवि अवयं सारओऽवि, एगं नो जाइओ अवयं नो सारओ, अहवा उच्च जत्थ मणुन्नाणि लब्भति, अवयं जत्य न तारिसाणित्ति, तहप्पगारं फुलं उच्चं वा भवउ अवयं वा भवउ, सव्वं परिवाडीय समुदाणितब्बं, ण पुण नीयं कुलं अतिक्कमिऊण ऊसढ अभिसंधारिज्जा, 'णीय' नाय णीयंति वा अवयंति वा एगट्ठा, दुगु छियकुलाणि वज्जे उण जं सेसं कुलं तमतिक्कमिउणं नो ऊसढं गच्छेज्जा, ऊसढं नाम ऊसदंति वा उच्चति वा एगट्ठ, तमि ऊसढे उक्कोसं लभीहामि बहुं वा लब्भीहामितिकाऊण णो णियाणि अतिक्क मेज्जा, कि कारणं ? दोहा भिक्खायरिया भवति, सुत्तत्थपलिमंथो य, जडजीवस्स य अण्णे न रोयंति, जे ते अतिक्कमिज्जति ते अप्पत्तियं करेंति जहा परिभवति एस अम्हेत्ति, पव्वइयोवि जातिवायं ण मुयति, जातिवाओ य उववूहिओ भवति। ४..-विशुद्धि मार्ग भूमिका प० २४ । विशेष विवरण के लिए देखें १०६७-६८ । ५-(क) अ० चू० पृ० १३२ : पाठविसेसो वा — 'वंदमाणो न जाएज्जा'। (ख) जि० चू०प० २०० : अथवा एस आलावओ एवं पढिज्जइ 'वंदमाणो ण जाएज्जा' वंदमाणो णाम वंदमाणो सिराकंप पंजलियादीहि णो जाएज्जा, वायाएवि वंदणसरिसाए ण जातिब्बो, जहा सामि भट्टि देवए वाऽसि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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