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________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २६६ अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २८-३४ २८-सयणासण वत्थं वा भत्तपाणं व संजए। अदेंतस्स न कुप्पेज्जा पच्चक्खे वि य दीसओ॥ शयनासनं वस्त्रं वा, भक्त-पानं वा संयतः। अददतो न कुप्येत्, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने ॥२८॥ २८-संयमी मुनि सामने दीख रहे शयन, आसन, वस्त्र, भक्त या पान न देने वाले पर भी कोप न करे। २६-इत्थियं पुरिसं वा वि डहरं वा महल्लगं । वंदमाणो न जाएज्जा नो य णं फरसं वए॥ स्त्रियं पुरुषं वाऽपि, डहर वा महान्तम् । वन्दमानो न याचेत, नो चैनं परुषं वदेत् ॥२६॥ २६---मुनि स्त्री या पुरुष, बाल या वृद्ध की वन्दना (स्तुति) करता हुआ याचना न करे५०, (न देने पर) कठोर वचन न बोले । से कुप्पे समुक्कसे। ३०-जे न वंदे न वंदिओ न एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्टई यो न वन्दते न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षेत् । एवमन्वेषमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥३०॥ ३०-जो वन्दना न करे उस पर कोप न करे, वन्दना करने पर उत्कर्ष न लाएगर्व न करे। इस प्रकार (समुदानचर्या का) अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य निर्बाच भाव से टिकता है। ३१-सिया एगइओ लर्बु लोभेण विणिगृहई। मा मेयं दाइयं संतं दळूणं सयमायए॥ स्यादेकको लब्ध्वा, लोभेन विनि हते। मा ममेदं दर्शितं सत्, दृष्ट्वा स्वयमादद्यात् ॥३१॥ ३१-३२-~-कदाचित् कोई एक मुनि सरस आहार पाकर उसे, आचार्य आदि को दिखाने पर वह स्वय ले न ले,---इस लोभ से छिपा लेता है, वह अपने स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला और रस-लोलुप मुनि बहुत पाप करता है। वह जिस किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता और निर्वाण को नहीं पाता। ३२–अत्तगुरुओ लुद्धो बहुं पावं पकुव्वई। दुत्तोसओ य से होइ निव्वाणं च न गच्छई ॥ आत्मार्थ-गुरुको सुब्धः, बहु पापं प्रकरोति। दुस्तोषकश्च स भवति, निर्वाणं च न गच्छति ॥३२॥ ३३ --सिया विविहं भद्दगं विवण्णं एगइओ लर्बु पाणभोयणं । भद्दगं भोच्चा विरसमाहरे ॥ स्यादेकको लब्ध्वा, विविधं पान-भोजनम् । भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा , विवर्ण विरसमाहरेत् ॥३३॥ ३३- कदाचित् कोई एक मुनि विविध प्रकार के पान और भोजन पाकर कहीं एकान्त में बैठ श्रेष्ठ-श्रेष्ठ खा लेता है, विवर्ण और विरस को स्थान पर लाता है। ३४-जाणंतु ता इमे समणा जानन्तु तावदिमे श्रमणा, आययट्ठी अयं मुणी। आयतार्थी अयं मुनिः । सन्तुष्टः सेवते प्रान्तं, संतुटको सेवई पंतं __रूक्षवृत्तिः सुतोषकः ॥३४॥ लूहवित्ती सुतोसओ ॥ ३४... ये श्रमण मुझे यों जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी५२ है, सन्तुष्ट है, प्रान्त (असार) आहार का सेवन करता है, रूक्षत्ति५३ और जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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