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________________ पिंडेसणा ( पिण्डैषणा ) २३१ अध्ययन ५ (प्र० उ०) : श्लोक ३५ टि० १३६ पिण्ड नियुवित (गाथा ६१३-२६) में एषणा के लिप्त नामक नौवे दोष का वर्णन करते हुए एक बहुत ही रोचक संवाद प्रस्तुत किया गया है । आचार्य कहते हैं.---''मुनि को अलेपकृत आहार (जो नुपड़ा न हो, सूखा हो, वैसा आहार) लेना चाहिए, इससे पश्चात्कर्म के दोष का प्रसङ्ग टलता है और रस-लोलुपता भी सहज मिटती है।" शिष्य ने कहा-“यदि पश्चात्-कर्म दोष के प्रसङ्ग को टालने के लिए लेप-कर आहार न लिया जाए यह सही हो तो उचित यह होगा कि आहार लिया ही न जाए जिससे किसी दोष का प्रसङ्ग ही न आए।" आचार्य ने कहा--- "सदा अनाहार रहने से चिरकाल तक होने वाले तप, नियम और संयम की हानि होती है, इसलिए यावत्जीवन का उपवास करना ठीक नहीं।" शिष्य फिर बोल उठा--"यदि ऐसा न हो तो छह-छह मान के सतत उपवान किए जाएं और पारणा में अलेप-कर आहार लिया जाए।" आचार्य बोले...यदि इस प्रकार करते हुए सयम को निभाया जा सके तो भले किया जाए, रोकता कौन है ? पर अभी शारीरिक बल मुदृढ़ नहीं है, इसलिए तप उतना ही किया जाना चाहिए जिससे प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि मुनि का आचार भली-भांति पाला जा सके।" मुनि को प्राय: विकृति का परित्याग रखना चाहिए। शरीर अस्वस्थ हो, संयम-योग को लिाकाक्ति-संचय करना आवश्यक हो तो विकृतियाँ भी खाई जा सकती हैं । अलेप-कर आहार मुख्य होना चाहिए। कहा भी है ...अभिनवणं निविगई गया य'।' इसलिए सामान्य विधि से यह कहा गया है कि मुनि को अलेप कर आहार लेना चाहिए । श्चात्-कर्म दोष की दृष्टि से विचार किया जाए वहाँ उतना ही पर्याप्त है जिन्ना मूल श्लोकों में बताया गया है । १३६. असंसृष्ट संसृष्ट ( असंसठेण, ३५ संसठ्ठण ३६ क ): . असंसृष्ट और संसृष्ट के आठ विकल्प होते हैं--- १. संसृष्ट हस्त संसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । २. संसृष्ट हस्त संसृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । ३. संसृष्ट हस्त असंसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । ४. संसृष्ट हस्त असं सृष्ट मात्र निरवशेषद्रव्य । ५. असंसृष्ट हस्त संसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । ६. असंसृष्ट हस्त संसृष्टमात्र निरवशेषद्रव्य । ७. असंसृष्ट हस्त असंसृष्टमात्र सावशेषद्रव्य । ८. असंमृष्ट हस्त असंसृष्टमात्र निरवशेषद्रव्य । इनमें दूसरे, चौथे, छ? और आठवें विकल्प में पश्चात्-कर्म की भावना होने के कारण उन रूपों में भिक्षा लेने का निषेध है और शेष रूपों में उसका विधान है। १-दश० चू० : २.७ ॥ २-(क) अ० चू० पृ० ११० : एत्थभंगा----संसट्ठो हत्थो संसट्ठो मत्तो सावसेसं दव, संसट्ठो हत्थो संसट्ठो मत्तो णिरवसेसं दव्वं--- एवं अट्ठ भंगा। एत्थ पढमो पसत्थो, सेसा कारणे जीव-सरीररक्खणत्यमणंतरमपदिट्ठ। (ख) जि. चू० १० १७६ : एत्थ अट्ठभंगा-हत्थो संसत्तो मत्तो संसट्ठो निरवसेसं दव्वं एवं अट्ठभंगा कायब्वा, एत्थ पढमो भंगो सव्वुक्किट्ठो, अण्णेसुवि जत्थ सावसेसं दवं तत्थ गेण्हति । (ग) हा टी०प० १७० : इह च वृद्धसंप्रदाय:--संसह हत्थे संसठे मत्ते सावसेसे दवे, संसट्ठे हत्थे संसट्टे मत्ते णिरवसेसे दव्वे, एवं अट्ठभंगा, एत्थ पढमभंगो सव्वुत्तमो, अन्नेसुऽवि जत्थ सावसेसं दव्वं तत्थ पिप्पइ, ण इयरेसु, पच्छाकम्मदोसाउ ति। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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