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________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) १७४. ६३- "एवं उस्सक्किया ओसक्किया उज्जालियापज्जालिया निवाविया । उस्सिचिया निस्सिचिया ओसिया ओयारिया दए । ६४- तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । पडियाइक्ले देतियं न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६५ - होज्ज कट्ठ सिलं वा वि इट्टा वा बि एगया । ठवियं संकमट्टाए तं च होज्ज चलाचलं ॥ ७७५ ६६ - न तेण भिक्खु गच्छेज्जा विट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं सिरं चेय सव्विसमाहिए ६७ - निस्मेणि उसवतानमा रहे मंचं कोलं च पासायं समणट्टाए व ६८ - दुरूहमाणी फलगं पीढ़ ६९ एवारिसे 11 पवज्जा हत्थं पायं व लूसए । पुढविजी वि हिंसेज्जा जे य तन्निस्सिया जगा ॥ Jain Education International दावए ॥ महादोसे जाणिऊण महेति । तम्हा मालोहदं भिक्खं न पडिगेण्हंति संजया ॥ १८६ एवमुत्वक्य अवष्वक्य, उज्ज्वात्य प्रज्वाल्य निर्वाप्य । उत्सिल्य निविष्य अपवर्त्य अवतार्य दद्यात् ॥ ६३॥ तद्भवेद् भक्त पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ ६४ ॥ भवेत् काष्ठं शिला वाऽपि, 'इट्टालं' वाऽपि एकदा | स्थापितं संत्रमार्ग, तच्च भवेच्चलाचलम् ॥। ६५ ।। न तेन भ दृष्टस्तत्र संयमः । गंभीरं शुषिरं चैव सर्वेन्द्रिय समाहितः ॥६६ निश्रेण फलकं पीठं, उत्त्म आरोहेत् । मञ्चं कीलं च प्रासादं, श्रमणार्थं वा दायकः ॥ ६७ ॥ आरोहन्ती प्रपत् हस्तं पादं वा लूषयेत् । पृथिवी जीवान् हिंस्यात् याँश्च तन्निश्रितान् 'जगा' ॥ ६८ ॥ एतान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः । तस्मान्मालतां भिक्षां, प्रतिगृह्णन्ति संयताः ॥६६॥ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक ६३-६६ १६५ ६३-६४ -- इसी प्रकार ( चूल्हे में ) ईंधन डालकर, ( चूल्हे से ) ईंधन निकाल कर, १६९ (चूल्हे को ) उज्ज्वलित कर (सुलगा कर) प्रज्वलित कर (प्रदीप्त कर ), बुझाकर, अग्नि पर रखे हुए पात्र में से आहार निकाल कर, १७० पानी का छींटा देकर, १७१ पात्र को टेढा कर, १७२ उतार कर, १७३ दे तो वह भक्त पान संयति के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । For Private & Personal Use Only ६५-६६ यदि कभी काठ, शिला या ईंट के टुकड़े ७४ संक्रमण के लिए रखे हुए हों और नेता हो तो सर्वेन्द्रियसमाहित भिक्षु उन पर होकर न जाए। इसी प्रकार यह प्रकाश रहित और पोली भूमि पर से न जाए। भगवान् ने वहाँ असंयम देखा है । ६७-६६ भ्रमण के लिए वाला तिसैनी, फलक और पीढे को ऊँचा कर, मचान, १७६ स्तम्भ और प्रासाद पर ( चढ़ भक्त पान लाए तो साधु उसे ग्रहण न करे ) । निसैनी आदि द्वारा पढ़ती हुई स्त्री गिर सकती है, हाथपैर टूट सकते हैं। उसके गिरने से नीचे दबकर पृथ्वी के तथा पृथ्वी- आश्रित अन्य जीवों की विराधना हो सकती है। अतः ऐसे महादोषों को जानकर संयमी मह १७७ मालापहृत" भिक्षा नहीं लेते। www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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