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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) २८-आहरंती सिया तत्थ परिसाडेज्ज भोयणं । बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ १८४ आहरन्ती स्यात् तत्र, परिशाटयेद् भोजनम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२८॥ अध्ययन ५ (प्र० उ० ): श्लोक २८-३४ २८-~-यदि साधु के पास भोजन लाती हुई गृहिणी उसे गिराए तो मुनि उस देती हुई११ स्त्री को प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। २६-सम्मद्दमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणि य । असंजमरि नच्चा तारिस परिवज्जए॥ सम्मर्दयन्ती प्राणान्, बीजानि हरितानि च। असंयमकरी ज्ञात्वा, तादृशं परिवर्जयेत् ॥२६॥ २६-प्राणी, बीज और११८ हरियाली को कुचलती हुई स्त्री असंयमकरी होती हैयह जान९ मुनि उसके पास से भक्तपान'२० न ले। ३०-साह? निक्खिवित्ताणं सच्चित्तं घटियाण य । तहेव समणट्ठाए उदगं संपणोल्लिया ॥ संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा च। तथैव श्रमणार्थ, उदकं संप्रणुद्य ॥३०॥ ३०-३१--एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकाल कर१२१, सचित्त बस्तु पर रखकर, सचित्त को हिलाकर, इसी तरह पात्रस्थ सचित्त जल को हिलाकर, जल में अवगाहन कर, आंगन में ढुले हुए जल को चालित कर श्रमण के लिये आहार-पानी लाए तो मुनि उस देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करे- इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता'२२ । ३१-ओगाहइत्ता चलइत्ता आहरे पाणभोयणं । पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं । अवगाह्य चालयित्वा आहरेत्पान-भोजनम् । वदती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ दंतियं ३२-पुरेकम्मेण हत्थेण दव्वीए भायणेण वा ॥ देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ पुरःकर्मणा हस्तेन, दा भाजनेन वा। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३२॥ ३२-पुराकर्म-कृत१२3 हाथ, कड़छी और बर्तन से१२४ भिक्षा देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे--इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता । ३३-१२५एवं उदओल्ले ससिणिद्धे ससरक्खे मट्टिया ऊसे ।। हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणे लोणे ॥ एवं उदआई : सस्निग्धः, ससरक्षो मृत्तिका ऊषः। हरितालं हिंगुलकं, मनःशिला अञ्जनं लवणम् ॥३३॥ ३३-३४ .... इसी प्रकार जल से आर्द्र, सस्निग्ध,१२६ सचित्त रज-कण,१२७ मत्तिका,१२८ क्षार,१२९ हरिताल, हिंगुल, मैनशिल, अञ्जन, नमक, गैरिक,93° वणिका,१३१ श्वेतिका,१३२ सौराष्ट्रिका, 33 तत्काल पीसे हुए आटे13४ या कच्चे चावलों के आटे, अनाज के भूसे या छिलके और फल के सूक्ष्म खण्ड१३६ से सने हुए (हाथ, कड़छी और बर्तन से भिक्षा देती हुई स्त्री) को मुनि प्रतिषेध करेइस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता तथा संसृष्ट और असंसृष्ट को जानना चाहिये । ३४-गेरुय वणिय सेडिय सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुसकए य । उक्कट्ठमसंस? संसट्रे चेव बोधव्वे ॥ गरिकं वर्णिका सेटिका, सौराष्ट्रिका पिष्टं कुक्कुसकृतश्च । उत्कृष्टमसंसृष्टः, संसृष्टश्चैव बोद्धव्यः ॥३४॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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