SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) जे य कीडपयंगा, जाय कुंथुपिवीलिया, सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सत्ये चउररिया सच्चे पंचिदिया सध्ये तिरिक्जोगिया सच्चे या सच्चे मणयाराध्ये देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिया एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाओ पिचई । १० इन्वेसिहं जीवनिकायाणं नेयस दंड समारंभेज्जा नेवमहिदं समारंभावेना व समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जाव. जीवा तिहिं तिविहेणं मणेणं बायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करत पि अन्नं न समणजाणामि । तस्स भंते पडिस्कमामि निदामि गरिहामि अण्णा बोसिरामि । ११- परमे भंते ! पाणाइवायाओ वेरमणं । सव्व भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि - से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सगं पाणे अइबाएजा नेयमेहिं पाणे अइवायावेश्या पाणे अइवापते व अन्ने न समजणेजा जावरजीवाए तिहिं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारयेभि करत पि अन्नं न समण जाणामि । महव्यए तरस भंते! पडिस्कमामि निदासि गरिहामि अप्पा बोसिरामि । पदमे भंते! महत्यए उषड्डिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं । Jain Education International १०७ ये च कीटपतङ्गाः, यापिपीलिका, सर्वे द्वीन्द्रियाः सर्वे त्रीन्द्रियाः सर्वे चतुरिन्द्रियाः सर्वे पंचेन्द्रियाः सर्वे तिर्यग्योनिका सर्वे रविका सबै मनुजाः सर्वे देवाः सर्वे प्राणाः परमधार्मिकाः एष खलु षष्ठो इति प्रोच्यते ॥ ६॥ जीवनिकायस्त्रसकाय इत्येषां षण्णां ज स्वयं दण्डं समारभेत नैवान्यैर्दण्डं समारम्भयेत् दण्डं समारभमाणनव्यग्यान् न समनुजानीयात् यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि आत्मानं व्युत्सृजामि ॥१०॥ प्रथमे भदन्त ! महाव्रते प्राणातिपाताद्विरमणम् । सर्वं भदन्त ! प्राणातिपात प्रत्याख्यामि - अथ सूक्ष्मं वा बादरं वा त्रसं वा नव स्वयं प्राणानतिपातयामि नैवान्यैः प्राणानतिपातयामि प्राणानतिपात स्थावर वा तो पासमानानावजी त्रिविधं विविधेन मनसा वाचा कान न करोमि ग कारयामि कुर्वन्ध्यन्न रामनुजानामि । अध्ययन ४ : सूत्र १०-११ जो कीट, पतंग, कुंथु, पिपीलिका सब दो इन्द्रिय वाले जीव, सब तीन इन्द्रिय वाले इन्द्रिय वाले जीव, सब तिर्यक्-योनिक, सब जीव, सब चार इन्द्रिय वाले जीव, सब पाँच नैरयिक, सब मनुष्य, सब देव और सब प्राणी सुख के क... For Private & Personal Use Only यह छट्टा जीवनिकाय सकाय कहलाता है । ११ गते पहले" महाव्रत में प्रतिपसेविरमण होता है। ४५ भन्ते ! मैं सर्व" प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूक्ष्म या स्थूल, ४५ बस या स्थावर ४६ जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात" मैं स्वयं नहीं करूँगा तुम से नहीं कराऊँगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काया से-न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं 1 भन्ते ! मैं अतीत में किए प्राणातिपात तस्य भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, ग आत्मानं गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । त्वामि । प्रथमे भक्त! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणम् ॥११॥ भन्ते ! मैं पहले महाव्रत में उपस्थित हुआ है। इसमें सर्वप्राणातिपातकी विवि होती है। १० - इन छह जीव-निकायों के प्रति स्वयं दण्ड- समारम्भर नही करना चाहिए, दूसरों से दण्ड-समारम्भ नहीं कराना चाहिए और दण्ड- समारम्भ करनेवालों का अनुमोदन नहीं करना चाहिए। यावज्जीवन के लिए 3 तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काया से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा । भंते ३६ ! उप मैं अतीत में किए दण्डसमारम्भ से निवृत होता है, उसकी निदा करता हूँ, गर्हा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ" । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy