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________________ खुड्डियावारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २६ ६६ भगवान् महावीर ने अपने दीर्घ साधना काल में कभी चैकित्स्य का सहारा नहीं लिया । आचाराङ्ग में कहा है : " रोग से स्पृष्ट होने पर भी वे चिकित्सा की इच्छा तक नहीं करते थे।" उत्तराध्ययन के अनुसार जो किस्ताका परियाग करता है वही भन्नु है। सूत्र में कहा है- साधु 'आणि' को छोड़े यहाँ 'आग' का अर्थ तादि के आहार अथवा रसायन क्रिया द्वारा शरीर को बलवान बनाना किया गया है। उक्त संदर्भों के आधार पर जान पड़ता है कि निर्ग्रन्थों के लिए निष्प्रतिकर्मता का विधान रहा है । पर साथ ही यह भी सत्य है। कि साधु रोगोपचार करते थे । द्रव्य औषध के सेवन द्वारा रोग-शमन करते थे । आगमों में यत्र-तत्र निर्ग्रथों के औषधोपचार की चर्चा मिलती है । भगवान् महावीर पर जब गोशालक ने तेजो लेश्या का प्रयोग किया तब भगवान् ने स्वयं औषध मंगाकर उत्पन्न रोग का प्रतिकार किया था । श्रावक के बारहवें व्रत - अतिथि संविभाग व्रत का जो स्वरूप है उसमें साधु को आहार आदि की तरह ही श्रावक औषध - भैषज्य से भी प्रतिलाभित करता रहे ऐसा विधान है । ऐसी परिस्थिति में सहज ही प्रश्न होता है-जब चिकित्सा एक अनाचार है तो साधु अपना उपचार कैसे करते रहे ? सिद्धान्त और आचार में यह असंगति कैसे ? हमारे विचार में चिकित्सा अनाचार का प्रारंभिक अर्थ चिकित्सा न करना रहा, किन्तु जिनकल्प मुनि चिकित्सा नहीं कराते और स्थविरकल्प मुनि विधिपूर्वक चिकित्सा करा सकते हैं इस स्थापना के बाद चिकित्सा अनाचार का अर्थ यह हो गया - अपनी सावध चिकित्सा करना या दूसरे से अपनी सावद्य चिकित्सा करवाना। इसका समर्थन आगमों से भी होता है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में पुष्प, फल, कन्द-मूल तथा सब प्रकार के बीज साधु को औषध, भैषज्य, भोजन आदि के लिए अग्राह्य बतलाये हैं। क्योंकि ये जीवों की योनियां हैं। उनका उच्छेद करना साधु के लिए अकल्पनीय है। ऐसा उल्लेख है कि कोई गृहस्थ मंत्रबल अथवा कन्द-मूल, छाल या वनस्पति को खोद या पकाकर मुनि की चिकित्सा करना चाहे तो मुनि को उसकी इच्छा नहीं करनी चाहिए और न ऐसी चिकित्सा करानी चाहिए । १ - ( क ) आ० ६.४.१ पुट्ठे वा से अपुठ्ठे वा णो से सातिज्जति तेइच्छं । (ख) आ० ६.४.१ टीका प० २८४ : स च भगवान् स्पृष्टो वा अस्पृष्टो वा कासश्वासादिभिर्नासौ चिकित्साम भिलवति, न द्रव्यौषधाद्युपयोगतः पीडोपशमं प्रार्थयतीति । २ – उत्त० १५.८ : आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खु । ३- सू० ९.१५ आणि प तं विज्जं ! परिजाणिया || 3 ४ - सू० १.६.१५ की टीका : येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रिया वा अशूनः सन् आ - समन्तात् शूनीभवति - तवामुपजायते तदानीत्युच्यते । ००१५ पृ० ३३-४ तं गच्हणं तुमं सौहा मेंढयामं नगरं रेवतीए गाहाबलिगीए मिहे, तस्य णं रेवतीए गाहाबतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरी उपखडिया तेहि नो अट्ठो अस्थि से अग्ने पारिया सिए मजाक कुक्कुट तमाहरा हि एवं अट्ठो तए सम भगवं महावीरे अइए जाव अगोवएवं अपागं समाहारं सरीरको गंसि पविवति । तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायके खिप्पामेव उस पत हो जाए, आरोग्यसरीरे । ६ - उपा० १.५८ : कप्पड़ मे समणे निग्गंथे फासुएणं एस णिज्जेणं असण- पाण- खाइम साइमेणं ओसह-भेसज्जेणं च पडिला भेमाणस्स हिरिए। ७ - प्रश्न० सं० ५ ण यावि पुप्फफल कंदमूला दियाई सणसत्तरसाई सम्वधन्नाई तिहिवि जोगेहि परिघेत्तुं ओसह - भेसज्ज भोयणट्टाए संजयेणं । प्रश्न० [सं० ५कार ह -आ० ० १३.७८ (से से परो) से अग्गमण्णं) सुणं वा वद-वलेणं तेइ जाउ एस जो जंगम दिट्ठा कप जोगिसमुन्ति सा । Jain Education International ( से से परो ) ( से अण्णमण्णं) असुद्धेणं वा वइ-बलेणं तेइच्छं आउट्ट, (से से परो ) ( से अण्णमण्णं) गिलाणस्स सचित्ताणि कंदाणि वा, मूलाणि वा, तयाणि वा, हरियाणि वा, खणित्तु वा, कड्देत्त वा, कढावेत्तु वा, इच्छं आउट्टज्जा - णो तं साइए, णो तं नियमे । 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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