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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) अध्ययन ३ : श्लोक १-२ टि० ७-८ श्रमण अनेक प्रकार के होते हैं । श्रमण निर्ग्रन्थ को कैसे पहचाना जाय-यह एक प्रश्न है जो नवागन्तुक उपस्थित करता है । आचार्य बतलाते हैं -निम्न लिखित बातें ऐसी हैं जो निर्ग्रन्थ द्वारा अनाचरित हैं। जिनके जीवन में उनका सेवन पाया जाता हो वे श्रमण निर्ग्रन्थ नहीं हैं । जिनके जीवन में वे आचरित नहीं हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थ हैं। इन चिह्नों से तुम श्रमण निर्ग्रन्थ को पहचानो। निम्न वर्णित अनाचीों के द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थ का लिङ्ग निर्धारित करते हुए उसकी विशेषताएँ प्रतिपादित कर दी गई हैं। ७ अनाचीर्ण हैं ( अगाइण्णं ग ) : 'अनाचरित' का शब्दार्थ होता है—आचरण नहीं किया गया, पर भावार्थ है--आचरण नहीं करने योग्य-अकल्प्य । जो वस्तुएँ, बातें या क्रियाएँ इस अध्ययन में बताई गई हैं वे अकल्प्य, अग्राह्य, असेब्य, अभोग्य और अकरणीय हैं । अतीत में निर्ग्रन्थों द्वारा ये कार्य अनाचरित रहे अत: वर्तमान में भी ये अनाचीर्ण हैं । श्लोक २ से ६ तक में उल्लिखित कार्यों के लिए अकल्प्य, अग्राह्य, असेव्य, अभोग्य, अकरणीय आदि भावों में से जहाँ जो लागू हो उस भाव का अध्याहार समझना चाहिए। श्लोक २: ८. औद्देशिक ( उद्देसियं क ): इसकी परिभाषा दो प्रकार से मिलती है :- (१) निर्ग्रन्थ को दान देने के उद्देश्य से अथवा (२) परिवाजक, श्रमण, निम्रन्थ आदि सभी को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, वस्तु अथवा मकान आदि औद्देशिक कहलाता है । ऐसी वस्तु या भोजन निर्ग्रन्थश्रमण के लिए अनाचीर्ण है- अग्राह्य और असेव्य है। इसी आगम (५.१.४७-५४) में कहा गया है.--."जिस आहार, जल, खाद्य, स्वाद्य के विषय में साधु इस प्रकार जान ले कि वह दान के लिए, पुण्य के लिए, याचकों के लिए तथा श्रमणों --भिलुओं के लिए बनाया गया है तो वह भक्त-पान उसके लिए अग्राह्य होता है । अतः साधु दाता से कहे- 'इस तरह का आहार मुझे नहीं कल्पता' ।" इसी तरह औद्देशिक ग्रहण का वर्जन अनेक स्थानों पर आया है। औद्देशिक का गम्भीर विवेचन आचार्य भिक्षु ने अपनी साधु-आचार की ढालों में अनेक स्थलों पर किया है। इस विषय के अनेक सूत्र-संदर्भ वहाँ संगृहीत हैं । भगवान् महावीर का अभिमत था— 'जो भिक्षु औद्देशिक-आहार की गवेषणा करता है वह उद्दिष्ट-आहार बनाने में होने वाली त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा की अनुमोदना करता है--वहं ते समणुजाणन्ति'५। उन्होंने उद्दिष्ट-आहार को हिंसा और सावध से युक्त होने के कारण साधु के लिए अग्राह्य बताया। १-(क) अ० चू० पृ० ५६ : अणाचिणं अकप्पं । अणाचिण्णमिति ज अतीतकालनिद्देस करेति तं आयपरोभयतातिणिदरिसणत्थ, जं पुरिसोहि अणातिण्णं तं कहमायरितव्वं ? (ख) जि० चू० १० १११ : अणाइण्ण णाम अकप्पणिज्जंति वुत्तं भवइ, अणाइण्णग्गहणेण जमेतं अतीतकालग्गहणं करेइ तं आयपरोभयतातीणं कोरइ, कि कारणं ?, जइ ताव अम्ह पुब्धपुरिसेहि अणातिण्णं तं कहमम्हे आयरिस्सामोत्ति? (ग) हा० टी० १० ११६ : अनाचरितम्-अकल्प्यम् । २-(क) जि० चू० पृ० १११ : उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्तं आरंभोत्ति वुत्तं भवति । (ख) अ० चू० पृ० ६० : उद्देसितं जं उहिस्स कज्जति । (ग) हा० टी० ५० ११६ : 'उद्देसियं ति उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः तत्र भवमौद्देशिकम् । ३-(क) दश० ५.१.५५, ६.४८-४६; ८.२३; १०.४ । (ख) प्रश्न० (संवर-द्वार) १,५। (ग) सू० १.६.१४ । (घ) उत्त० २०.४७ । ४-भिक्षु-ग्रन्थ० (प्र० ख०) पृ० ८८८-८६ आ० चौ० : १६.१-२२ । ५-दश० ६.४८ । ६-प्रश्न० (संवर-द्वार) २.५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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