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________________ प्रथम अध्ययन सूत्र १५०-१५४ धम्ममाइक्लइ --एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुजियव्वं, एवं भासियध्वं एवं उडाए उद्वाय पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियम्यं, अस्सिं च णं अट्ठे नो पमाएयव्वं ।। १५१. तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उनएस सम्मं पहियज्जइतमाणाए तह गच्छ तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तुयट्टइ, तह भुंजइ, तह भासइ, तह उडाए उद्वाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमद ।। मेहस्स मणो संकिलेस -पदं १५२. जद्दिवसं च णं मेहे कुमारे मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जा - संथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जा संधारए जाए यावि होत्या ।। १५३. तए णं समणा निगंधा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परिवट्टणाए धम्मागुजोगचिंताए य उच्चारस्त वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघट्टेति अप्येगइया पाएहिं संघट्टेति अप्येगइया सीसे संघट्टेति अप्पेगइया पोट्टे संघट्टेति अप्पेगइया कार्यसि संघट्टेति अप्पेमइया ओलति अध्येमइया पोलडेति अध्येया पायरयरेणु - गुंडियं करेंति । महालियं च रयणिं मेहे कुमारे नो संचाएइ लणमवि अच्छि निमीलित्तए ।। १५४. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूये अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्यज्जित्था एवं खलु अहं सेणियत्स रण्णो पुत्ते धारिणीए देवीए अत्तए मेहे इसे कंते पिए मगुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रणे रणभूए जीवि उस्सासए हियय मंदि-जणणे उंबर-पुष्कं व दुल्हे सवणयाए । तं जया णं अहं अगारमज्झावसामि तया गं ममं समणा निग्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति सम्मार्णेति, अट्ठाई हेऊई पसिणा कारणाई वागरणाई आइक्स्वति, इट्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेंति संलवेंति । जप्पभिदं च णं अहं मुडे भविता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, तप्यभिदं च णं ममं समणा निगंथा नो आढायंति नो परियाणंति नो सक्कारेंति नो सम्मार्णेति नो अट्ठाई हेऊई परिणाइं कारणाई बागरणाई आइक्लति, नो हिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेंति संलवेंति । अदुत्तरं च णं ममं Jain Education International ४४ नायाधम्मकहाओ मात्रामूलक धर्म का आख्यान किया। देवानुप्रिय! इस प्रकार (संयम पूर्वक) चलो, इस प्रकार खड़े रहो, इस प्रकार बैठो, इस प्रकार लेटो, इस प्रकार खाओ, इस प्रकार बोलो" इस प्रकार जागरुक भाव से जागृत रह कर, प्राण, भूत, जीव और सत्वों के प्रति संयमपूर्ण प्रवृत्ति करो और इस अर्थ में प्रमाद मत करो। १५१. कुमार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के पास इस विशिष्ट धार्मिक उपदेश को सम्यक् स्वीकार किया। वह भगवान की आज्ञा से संयम पूर्वक चलता, संयम पूर्वक खड़ा रहता, संयम पूर्वक बैठता, संयम पूर्वक लेटता, संयम पूर्वक खाता, संयम पूर्वक बोलता और जागरूक भाव से जागृत रहकर प्राण, भूत, जीव और सत्वों के प्रति १९ संयमपूर्ण प्रवृत्ति करने लगा । मेघ का मनः संक्लेश-पद १५२. जिस दिन कुमार मेघ मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ, उस दिन सन्ध्या के उपरान्त दीक्षा पर्याय के क्रम से श्रमण निर्ग्रन्थों के शयनस्थल और संस्तारकों का विभाग किया गया । कुमार मेघ को शयनस्थल और संस्तारक दरवाजे के बीच में मिला। १५३. पूर्वरात्रापरात्र ( मध्यरात्रि) में वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धर्मानुयोग का चिन्तन और उच्चार या प्रस्रवण के हेतु आते-जाते श्रमण-निर्ग्रन्थों में से कुछेक कुमार मेघ के हाथ को छू जाते, कुछेक पांवों को छू जाते, कुछेक सिर को छू जाते, कुछेक पेट को छू जाते, कुछेक शरीर को छू जाते, कुछेक उसे लांघकर चले जाते कुछेक उसे बार-बार लांघकर चले जाते और कुछेक अपने पैरों की रजों से उसे धूलि लिप्त कर देते, इस कारण इतनी लम्बी रात में भी कुमार मेघ क्षण भर आंख नहीं मूंद सका । १५४. कुमार मेघ के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मैं राजा श्रेणिक का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज मेघ, उन्हें इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान, रत्न, रत्नभूत, जीवन, उच्छ्वास, हृदय को आनन्दित करने वाला और उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हूं। जब मैं गृहवास में था, तब ये श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे। मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे । सम्मान करते थे । अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण २० का आख्यान करते थे । इष्ट और कांत वाणी से आलाप-संलाप करते थे। जिस समय से मैं मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ हूं, उस समय से ये श्रमण-निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मेरी ओर ध्यान देते हैं न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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