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________________ नायाधम्मकहाओ करेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ७६-८१ और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गंध से अभिराम और प्रवर सुरभिवाले गंधचूर्णों से सुगन्धित गन्धवर्तिका जैसा बनाओ तथा नटों, नर्तकों, कोड़ी से जूआ खेलने वालों, पहलवान, मुष्टियुद्ध करने वालों, विदूषकों, कथा करने वालों, छलांग भरने वालों, रास रचाने वालों, शुभाशुभ बताने वालों, बांस पर चढ़कर खेल करने वालों, चित्रपट दिखाकर आजीविका करने वालों (मंखलि), तूण (मशक के आकार का वाद्य) वादकों, तम्बूरा-वादकों तथा अनेक ताल-बजाने वालों का संगीत करो और करवाओ। बंदीजनों को मुक्त करो। ऐसा करके वस्तुओं के मान और उन्मान का वर्धन करो (वस्तुओं का मूल्य कम करो)। ऐसा कर यह आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो। ७७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चपिण्णंति ।। ७७. तब राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कौटुम्बिक पुरुषों ने (आदेश को क्रियान्वित कर) उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ७८. तए णं से सेणिए राया अट्ठारससेणि-प्पसेणीओ सद्दावेई' सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नगरे अभितरबाहिरिए उस्सुकं उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिम-कुदंडिम अधरिमं अधारणिज्जं अणुद्धयमुइंग अमिलायमल्लदाम गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरियं पमुइयपक्कीलियाभिरामं जहारिहं ठिइवडियं दसदेवसियं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। ७८. राजा श्रेणिक ने अठारह श्रेणियों और उपश्रेणियों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो। तुम जाओ और राजगृह ___नगर के भीतर और बाहर कुल-मर्यादा के अनुरूप दस-दिवसीय उत्सव मनाया जाए--नागरिकों से किसी प्रकार का शुल्क और कर न लें,८२ सुभट प्रजा के घरों में प्रवेश न करें, राजदण्ड से प्राप्त द्रव्य तथा कुदण्ड--अपराधी आदि से प्राप्त ऋण--मुक्त करें, कोई भी कर्जदार न रहे, दण्ड द्रव्य न लें, नगर में सतत मृदंग बजते रहें, (तोरण-द्वारों आदि पर) अम्लान पुष्पमालाएं बांधी जाएं, गणिका आदि के द्वारा प्रवर नाटक किए जाएं, वहां अनेक ताल बजाने वालों का अनुचरण होता रहे, (इस प्रकार) प्रमुदित और खुशियों में झूमते हुए नागरिकों द्वारा नगर अभिराम बन जाए--तुम ऐसी व्यवस्था करो और करवाओ। ऐसा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। ७९. तेवि तहेव करेंति तहेव पच्चप्पिणंति ।। ७९. श्रेणियों और उपश्रेणियों के अधिकारी पुरुषों ने वैसा ही किया और वैसे ही उस आज्ञा को उन्हें प्रत्यर्पित किया। ८०. तएणं से सेणिए राया बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे सतिएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य दाएहिं दलयमाणे दलयमाणे पडिच्छमाणे-पडिच्छमाणे एवं च णं विहरइ।। ८०. राजा श्रेणिक बाहरी सभा-मण्डप में प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो बैठा। वहां शतमूल्य, सहस्रमूल्य एवं लक्ष-मूल्य वाले देय द्रव्यों को देता हुआ तथा उपहार लेता हुआ विहार करने लगा। मेहस्स नामादिसक्कार (संस्कार) करण-पदं ८१. तए णं तस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठितिपडियं करेंति, बितिए दिवसे जागरियं करेंति, ततिए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति, एवामेव मेघ का नाम आदि (संस्कार) करण-पद ८१. उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन कुल-मार्यादा के अनुरूप जन्मोत्सव मनाया। दूसरे दिन रात्रि जागरण किया। तीसरे दिन Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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